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________________ तरंगवती ८१ इसके बाद अतिशय वेग से हमें चलना पडा और दर्भतृण एवं सांठें की बनी झोंपडियों में से हम बहुत मुश्किल से गुजरे । चोर ने अब आने-जाने से पूर्वपरिचित, जो सुखपूर्वक पार किया जा सके और जिसका अंतर उसे ज्ञात था ऐसा जंगल की सीमा तक का मार्ग पकडा । वह आगे-पीछे, आसपास निरीक्षण करता, कभी रुकता, कभी आवाजें सुनता आगे बढने लगा । वह आवरण एवं कसे हुए उपयुक्त बख्तर और हथियार से सज्ज था। थोडी देर में उसने मुख्य मार्ग छोड दिया और हमसे कहा, 'इस रास्ते से वही जिंदा व्यक्ति गुजरता हैं, जो चोरों के जासूसों के हाथ मरना पसंद करता है । ' उस आडे मार्ग पर हम डरते - सहमते उस चोर के पीछे-पीछे बहुत देर तक चलने के बाद मुख्य मार्ग पर आ गये । " संकटपूर्ण वन्य मार्ग का प्रवास हम जब सूखे पत्तों पर से गुजरे तब कुचल जाने के कारण जो आवाज हुई उससे पेंडों पर से पंछी पंख फडफडाकर उड गये । वन्य प्राणी भैंसा, तेंदुआ, बाघ, लकडबघ्घा, शेर आदि के चीत्कार, चिंघाड, दहाड एवं क्वचित् पंक्षियों की कंपा देनेवाली चीख ऐसे अनेकविध शब्द हमें सुनाई देते थे । ऐसे भारी खतरे के बीच थे फिर भी हमें मार्ग में पशुपंक्षियों के शुभ शकुन हो रहे थे । इससे लगा कि भावि सानुकूल है । 1 मार्ग में कहीं-कहीं वन्य हाथियों की सूँड के प्रहारों से टूटे-गिरे फल, कोंपलें एवं डालियाँ बिखरे पड़े दिखाई दिये । चोर का अल्विदा : आभार दर्शन जब इस प्रकार अनेकविध परिस्थितियों से गुजरते जंगल को देखते देखते हमने पार किया तब वह चोर कहने लगा, 'जंगल हमने पार कर लिया है। अब तनिक भी तुम न डरो । यहाँ से नजदीक में ही गाँव हैं । तुम यहां से पश्चिम दिशा की ओर जाओ । मैं भी लौट जाता हूँ । मालिक के हुक्म से पल्ली में मैंने 1 1
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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