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________________ तरंगवती ७५ तरुण मेरी प्रशंसा करते थे और अधिकतर युवतियाँ मेरे प्रियतम की प्रशंसा कर रही थीं, जबकि बाकी लोग दोनों के प्रति अनुरागपूर्ण अथवा तटस्थ थे। चोरसेनापति इस प्रकार शत्रु, मित्र एवं तटस्थ पल्लीजनों से निरखाते-निरखाते हमें ऊँची कंटकयुक्त बाडवाले चोरसेनापति के घर में ले जाया गया। वहाँ हमको प्रवेश करवा के उस चोरवसाहत के सेनापति के अड्डे समान अति ऊँचे बैठकखंड में ले जाये गये । हे गृहस्वामिनी, वहाँ हमने चोरसमूह के नेता एवं सुभटचूडामणि उस शूरवीर को कोंपलों के ढेर से बने आसन पर बैठा देखा। तप्त सुवर्ण की चमकवाली और आसपास गुंजारित भ्रमरोंवाली पुष्पित असनवृक्ष की डाली से उसे धीरे-धीरे हवा झली जा रही थी। - वीर सोनिकों के परिचयचिह्न समान और सीने पर संग्रामों में प्राप्त अंगलेप समान झेले प्रशस्त प्रहारों से उसका पूरा शरीर चिह्नचित्रित था । अनेक युद्ध लडकर पक्के बने कालपुरुषों जैसे चोरसुभटों के समूह से घीरा हुआ यमराज समान लगता था । वह घुग्घू जैसी आंखों, पट्टी से लपेटी पिंडलियों, कठोर जाँघ एवं पुष्ट कमरवाला था। मृत्यु-भय से त्रस्त एवं काँपते हमने उस समय उसे करसंपुट की अंजलिरूप भेंट प्रदान करते हुए उसका अभिवादन किया । दृष्टि केन्द्रित कर के वह हममें भय प्रेरता हुआ अनिमेष नेत्रों से जिस प्रकार बाघ हरिणयुगल को देखता है वैसे हमको निरखने लगा। ___ वहाँ. स्थित चोरसमूह ने भी हमारे रूप, लावण्य एवं यौवन को अपनी स्वाभाविक रौद्र दृष्टि से देखा और विस्मित हुआ । अनेक गायों, स्त्रियों एवं ब्राह्मणों का वध करके पापमय बनी बुद्धि से जिसका हृदय दयाहीन एवं क्रूर हो चुका था ऐसे भीषण सेनापति ने हमारा निरीक्षण कर लेने के बाद निकट खडे एक चोर के कान में निष्कंप स्वर में कुछ संदेश कहा : 'चातुर्मास के अंत में सेनापतियों द्वारा स्त्रीपुरुष की जोडी का बलि चढाकर देवी का यज्ञ करने की हमारी प्रथा है। हमें नवमी के दिन यज्ञ
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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