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________________ ४४ तरंगवती उससे सुरतक्रीडा का प्रस्ताव रखने लगी । वहाँ एक भी युवती ऐसी न थी जिसके चित्त में शरदरजनी के अंधकारविनाशक पूर्ण चंद्र-सा वह तरुण प्रवेश पा गया न हो । 'देवों में ऐसा तेजस्वी कोई नहीं होता, इसलिए यह कोई देव तो नहीं जान पड़ता ।' इस प्रकार अनेक लोग उसकी प्रशंसा करते थे । जिसका समस्त शरीर क्रमशः दर्शनीय है ऐसा वह तरुण उस चित्रपट्ट के निकट आकर देखने लगा और चित्रकला को सराहता हुआ वह बोला : "चहुँदिश उठते भँवरों से क्षुब्ध जलपूर्ण, स्वच्छ श्वेत तटप्रदेशवाली, यह सागरप्रिया सरिता कितनी सुंदर अंकित की है ! भरपूर मकरंदवाले कमल वनोंसे व्याप्त अनेक कमलसरोवर एवं प्रचंड वृक्षों से घनी, विविध अवस्थाएँ व्यक्त कर रही यह अटवी भी क्या ही सुंदर चित्रित किये हैं ! और वन में शरद से लेकर हेमंत, वसंत, ग्रीष्म तक की ऋतुओं का उनके फूलफल के साथ कितना चार आलेखन किया है । यह चक्रवाकयुगल भी परस्पर स्नेहबद्ध एवं विविध स्थितियों में प्रदर्शित कितना रमणीय लगता है ! - जल में, तट पर, अंतरिक्ष में और पद्मिनीके निकटस्थ वह निरंतर एक समान अनुराग से खेलता- घूमता आनंद से क्रीडा करता दर्शाया है! गठीली सुंदर गरदनवाला, स्निग्ध मस्तकवाला, दृढ एवं पलाशपुष्प के ढेर-सी देहवाला चक्रवाक कितना उत्तम दीख रहा है । वैसे चक्रवाकी भी पतली सुकुमार ग्रीवावाली, तरोताजा कोरंटपुष्पों के ढेर जैसी शारीरिक गठनवाली अपने प्रियतम का अनुसरण करती रसीली अंकित की है। यह हाथी भी जो भग्न' वृक्षों को रौंदता जा रहा है आकृति द्वारा उसके गुण प्रकट हो इस प्रकार प्रमाण की विशालता सुरक्षित रखकर बढ़िया चित्रित किया है। उसे नदी में प्रवेश करता, यथेच्छ नहाता मदमस्त होकर तरबतर शरीर के साथ बाहर निकलता सुंदर अंकित किया है ।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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