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________________ तरंगवती विद्याभ्यास गर्भावस्था से आठवें वर्ष मेरे लिए चार प्रकार की बुद्धिवाले, कलाविशारद और धीर प्रकृति के एक आचार्य बुलाये गये। उनसे मैंने लेखन, गणित, रूपकर्म, आलेख्य, गीत, वाद्य, नाट्य, पत्रछेद्य, पुष्करगत - क्रमशः ये कलाएँ ग्रहण की। मैंने पुष्पपरीक्षा में तथा गंधयुक्ति में निपुणता प्राप्त की। इस प्रकार कालक्रम से मैंने विविध ललितकलाएँ ग्रहण की। मेरे पिताजी हमारा कुलधर्म श्रावकधर्म पालते थे। उन्होंने अमृततुल्य जिनमत में मुझे निपुण किया। नगरी में जो श्रेष्ठ प्रवचनविद् और प्रवचनवाचक थे उन्हें पिताजी ने मेरे लिए आमन्त्रित किये और मैंने निग्रंथ सिद्धान्त का सारतत्त्व ग्रहण किया। उन्होंने मुझे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का बोध क्रमानुसार कराया । यौवन हे गृहिणी, इसके बाद बाल्यावस्था बिताकर मैंने कामवृत्ति के प्रभाव से आनंददायक और शरीर का स्वाभाविक आभरण समान यौवन प्राप्त किया । कहा जाता है कि उन दिनों श्रीमंत, पूजनीय और देश के आभूषणतुल्य बहुत से वृद्ध गृहस्थ अपनी पुत्रवधू के रूप में मेरी माँग करते थे। परंतु कहा जाता है कि पिताजी मेरी इच्छा को सन्मानित करते थे। कोई वर समान दरजे के कुल, शील और रूपवाला दिखाई न देने के कारण उन मांगनियों का युक्तिपूर्वक अस्वीकार करते । विनयविवेक में कुशल सारसिका नामकी एक दासी मेरे प्रति स्नेह के कारण वह सारी बातचीत सुनकर मुझे कहती। · में भी 'जी, जी' कहती सखियों के बीच सतमंजिली हवेली की ऊपर की छत में खेलती । पुष्प, वस्त्राभूषण जो जो सुंदर खेलने के साधन और खाद्य पदार्थ होते वे सब मेरे मातापिता और भाई मुझे देते । मेरे विनय से गुरुजन, दान से भिक्षुकजन, सुशीलता से बंधुजन और मधुरता से अन्य सब संतुष्ठ थे । कभीकभी भावजों तो कभी-कभी सहेलियों से घिरी हुई मैं अपने गृहमंदिर में मंदरपर्वत पर की लक्ष्मी की तरह रहती थी। मैं पौषधशाला में बारबार सामायिक करती और जिनवचनों की सेवाशुश्रूषा करती । मातापिता, बंधु-बांधवों को हृदय से अधिक से अधिक प्रिय बनती मैं
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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