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________________ तरंगवती ११५ तले बैठे थे तब उत्तम एवं अनंत ज्ञान तथा दर्शन हुआ था। इसलिए उस लोकनाथ की आज भी महिमा की जाती है और भवक्षयकर्ता उनकी इस देवमंदिर में प्रतिमा प्रतिष्ठित की हुई है। श्रमणदर्शन : प्रव्रज्याग्रहण की इच्छा यह सब सुनकर मैंने वट एवं प्रतिमा को वंदन किया । वहाँ निकट ही बैठे उत्तम गुणनिधि एक श्रमण को मैंने देखा । वे चित्त में पाँचों इन्द्रियों को स्थापित कर के स्वस्थ एवं शांत भाव से बैठे थे और उन्होंने आध्यात्मिक ध्यान एवं संवर में अपना चित्त जोडकर एकाग्रता से उसका निरोध किया था। उन निष्पाप हृदय के श्रमण के पास जाकर मैंने उनके चरण पकड लिए और संवेग से स्मितपूर्वक हाथ जोडकर मैं बोला : - "हे महायशस्वी, मैं मान-क्रोध से मुक्त, हिरण्य एवं स्वर्ण से रहित, पापकर्म के आरंभ से निवृत्त हो गया हूँ। मैं आपकी शुश्रूषा करने के लिए तत्पर होकर आपका शिष्य बनना चाहता हूँ । मैं जन्म-मृत्यु के भंवरवाले; वध, बंधन और व्याधियों रूप मगरों के शिकारक्षेत्र जैसा संसाररूप महासागर आपकी नौका का आधार लेकर तर जाना चाहता हूँ।" यह सुनकर उन्होंने कर्ण एवं मन को शांतिदायक वचन कहे : "श्रमण के गुणधर्म जीवन के अंत तक निभाना दुष्कर है। कन्धों पर अथवा मस्तक पर बोझ ढोना आसान है, किन्तु शील को निरंतर पालने का व्रत सतत निभाना महा कठिन है।" अतः मैंने उन्हें फिरसे कहा, "दृढनिश्चयी पुरुषार्थी के लिए धर्म के अथवा काम के विषय में कोई बात दुष्कर नहीं । मैं उस प्रकार का पुरुषार्थ करने और आज ही सैकड़ों गुणमय, सर्व दुःखों को मिटा देनेवाली उग्र प्रव्रज्या लेने को तत्पर हूँ।" प्रव्रज्याग्रहण : श्रमणजीवन की साधना ___ मेरा यह निश्चय जानकर उन्होंने मुझे सब प्राणियों के लिए हितकारी, जरा एवं मृत्यु से छुटकारा दिलानेवाले पाँच महाव्रतों के गुणों से युक्त धर्म में स्थापित किया।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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