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________________ तरंगवती ११३ भयंकर अटवी के पार पहुँचाया । जंगल के बाहर सीमान्त गाँव के निकट की भूमि तक उन्हें पहुँचाकर मैंने संसार से विरक्त होकर मन में इस प्रकार सोचा : . "यह अपराध करके चोरपल्ली में लौटना और यमदूत जैसे सेनापति का मुँह देखना मेरे लिए उचित नहीं । इष्ट सुख का लोभ जो मृत्यु-समान है उसमें पडकर मैंने जो पुष्कल पाप किये हैं उनसे छुडानेवाला मोक्षमार्ग पकडना ही अब मेरे लिए श्रेयस्कर है। सुख पाने के प्रयास में जो रागमूढ मनुष्य दूसरों को दुःख में डालता है वह मूर्खता से अपने लिए भी अतिशय दुःखों को सर्जन करता है। .. पत्नीरूपी कारागार से छूटकर जो प्रेमबंधन मुक्त हो जाते हैं और साथ ही अपने रागद्वेष का शमन करके जो सुखदुःख के प्रति समभाव धारण कर विहरते हैं, उन्हें धन्य है । ऐसा सोचविचार करके मैंने उत्तर दिशा की राह ली। पुरिमंताल उद्यान . मेरा चित्त अब कामवृत्ति से विमुख हो गया और तपश्चर्या के सारतत्त्व को समझ गया था। मनुष्य के रक्त से रंजित तलवार और मल से मलिन ढाल . का मैंने त्याग किया । चलता-चलता मैं पुरिमताल उद्यान आ पहुँचा जो ताडवृक्षों के घने झुंडों से सोहता था और देवलोक के सार समान अलकापुरी का अनुकरण करता था। उसके दाहिनी ओर का प्रदेश कमलसरोवर से सुंदर लग रहा था । यह उद्यान उपवनों के सभी गुणों से भी बढचढकर आगे निकल जाता था। उसकी शोभा नंदनवन जैसी थी । वहाँ छहों ऋतुओं के पुष्प खिले हुए थे। वह फलसमृद्ध था और वहाँ चित्रसभा भी थी । कामीजनों के लिए वह आनंददायक था । वह सजल जलधर जैसा गभीर था। वहाँ मदमत्त भ्रमर और मधुकरियों की गुंजार और कोयल की मधुर कूक सुनाई पडती थी । पृथ्वी के सभी उद्यानों के गुण यहाँ इकट्ठे हुए जान पडते थे। उसमें जो दोष था वह केवल एक ही था : लोगों की कुशलवार्ता के विषय में वह उद्यान भ्रमर-भ्रमरियों और कोयल के शब्द द्वारा उनकी हँसी-मजाक उडाया करता था ।
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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