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________________ तरंगवती १११ अपने अनोखे रूप से तरुणी ने चोरों के हृदय चुरा लिए । उस अप्सरा समान तरुणी को कात्यायनी देवी के डर के कारण अपनी औरत बनाने का प्रयत्न नहीं किया और देवी को पशुबलि चढाने का निश्चय किया । I चोरों ने उस तरुण दंपती का रत्नों से भरा करंडक तथा अन्य भी जों मूल्यवान वस्तुएँ उन्हें प्राप्त हुई थी, सेनापति को सोंप दिया। सेनापति ने मुझे आज्ञा की कि इन दोनों का नवमी के दिन कात्यायनी के यज्ञ में महायज्ञ पशु के रूप में बलि चढाना है । उन्हें कब्जे में रखने के लिए मुझे सौंप दिया । आँसू बहाती आँखोंवाले और मृत्यु-भय से स्तब्ध हुए उन दोनों को मैं अपने घर ले आया । उस तरुण को बंधनों से जकडा, दालान में सहीसलामत रखकर पहरा देने तथा सुरापान करने लगा । वह तरुणी अपने पति के प्रति प्रेम के कारण विलापवचन चिल्लाती हुई शोक प्रकट करने लगी। उसका रुदन सुननेवालों के चित्त कँपा देता था । ऐसे रुदन की आवाज सुनकर आसपास से वहाँ अन्य बंदिनियाँ दौड आई । वे उसे देखकर शोक करने लगीं और कृत्तांत को शाप देने लगीं । उस समय कुतूहल- वश उन बंदिनियोंने तरुणी से पूछा : 'तुम लोग कहाँ के हो और कहाँ जा रहे थे ? चोरोंने तुम्हें क्यों पकडा ? उसने सिर हाथ पर रखकर कहा, "इस समय हम जो जो दुःख यातना पा रहे हैं उसके बीजसमान जो घटना है वह मैं तुम्हें शुरू से ब्योरेवार बताती हूँ, सुनिए : तरुणी का आत्मवृत्तांत चंपा नाम की उत्तम नगरी के पश्चिम में स्थित वन के अंदरूनी भाग में गंगाप्ररोचना नाम की मैं चक्रवाकी थी । वहाँ मेरे सुरतरथ का सारथि यह गंगात रंगतिलक नामधारी तरुण चक्रवाक नदी के पुलिन पर बसता था । एक दिन वन्य हाथी के शिकार के निकले किसी व्याध ने अपने धनुष्य से छोड़े हुए बाण प्रहार से वह चक्रवाक बींधकर चल बसा। पश्चात्ताप के कारण व्याध ने तट पर उसके शरीर का अग्निसंस्कार किया । पतिका मार्ग अनुसरनेवाली मैं भी उस अग्नि में प्रवेश करके जल मरी । इस प्रकार जल मरने के बाद यमुना नदी के तट पर स्थित कौशाम्बी नाम की उत्तम नगरी में श्रेष्ठीकुल में मेरा जन्म हुआ । यह मेरा प्रियतम भी उसी नगरी में मुझ से पहले ऐसे महान सार्थवाहकुल में जन्मा था जिसकी ख्याति तीन
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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