SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तरंगवती १०९ द्यूत की लत अपकीर्ति का मूल, लोगों के व्यसन का कारण, सर्व दोषों का स्रोत ऐसे घृत का मैं व्यसनी था । कपटी, उग्र, असाधु, लाभलोभी और सब सद्गुणों से वंचित लोग ही इस विनाशकारी लत का सेवन करते हैं। मृगतृष्णा समान छूत की लत के चंगुल में फंसा मैं कुलपरंपरा परगिरी उल्का समान चोरी भी करने लगा । सेंध लगाकर घरों में चोरी करना, राहगीरों का वध करना उनको लूट लेना वगैरह अपराधों के कारण स्वजन मेरा तिरस्कार करने लगे। द्यूत के व्यसनी हो गया था इससे पराया धन हडप लेने की वृत्ति भी बन गई थी। लोभ के भूत के आवास जैसा मैं रातभर हाथ में तलवार लेकर चक्कर लगाता रहता था। नगरी का त्याग और चोरपल्ली में आश्रय ' नगरी के कोने कोने के लोग मेरे अपराधों को जान गये। इससे आत्मरक्षा मुश्किल हो गई। आखिर विन्ध्य पर्वत की ओट में स्थित खारिका नामक अटवी में मैंने आश्रय लिया। वह सैंकडों पशु-पक्षियों की शरण एवं चोरसमूहों के मुकाम जैसी अनेक प्रकार के वृक्षसमूहों की घनी घट के कारण गहन अंधकारपूर्ण थी। - वहाँ से निकलकर विन्ध्य की गिरिमाला से ढकी और जिसका एकमात्र प्रवेशद्वार था ऐसी सिंहद्वार नाम की पल्ली में आकर मैं बस गया । वह स्थान व्यापारियों एवं सार्थवाहों को लूटनेवाले, परधन हर लेनेवाले और अनेक दुष्कर्म करनेवाले चोरों का अड्डा था । वे लोगों को ठगने, धन छीन लेने के अनेकानेक उपाय एवं रीतों के जानकार थे और निपट अधर्मी एवं अनुकंपाशून्य थे। उनमें कुछ शूरवीर ऐसे भी थे जो ब्राह्मणों, श्रमणों, स्त्रियों, बच्चों, बूढों एवं दुर्बल लोगों को सताते नहीं थे। वे केवल वीरपुरुषों से भीडंत ठानते । सैंकड़ों लडाइयों में जिन्होंने नाम कमाया था और जो बख्तरधारी घोडों पर सवार होकर डाकाजनी करते एवं विजयी बनते ऐसे चोर भी वहाँ निवास करते थे। चोरसेनापति चोरसमूह जिसकी शरण सुख से लेते, युद्धों में जो सूर्य समान प्रतापी
SR No.002293
Book TitleTarangvati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year1999
Total Pages140
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy