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________________ उल्लास के निर्भर प्रवाहित होते हैं, उसका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं हो सकता । प्रस्तुत पुस्तक में पू. प्राचार्य श्री ने यह बताया है कि " भवभ्रमण का प्रश्न लाने के लिए ग्रात्मा को केवल सधर्म की शरण ही अभीष्ट है । जैनधर्म में आत्मा की प्रगति, विकास और आत्मोद्धार के लिए सर्वज्ञ विभु तीर्थंकर परमात्माओं ने प्रतिदिन धर्म करने पर बल दिया है । उसमें अवलम्बन रूप विशिष्ट आराधना के लिए पर्व तिथियों, प्रठाइयों, तीर्थंकरों के कल्याणक दिवसों तथा चातुर्मास काल को उत्तम बताया है । अल्पज्ञों, बाल जीवों और छद्मस्थ प्राणियों के लिए सालम्बन ध्यान पुष्टावलम्बन रूप कहा गया है ।" जैन शासन में श्री नवपदजी की आराधना के लिए वर्ष में दो समय बताये गये हैं- १. आसोज मास और २. चैत्र मास । पहला आश्विन शुक्ला सप्तमी से प्राश्विन शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त तथा दूसरा चैत्र शुक्ला सप्तमी से चैत्र शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त । दोनों में नौ दिनों का तप होता है । शरद और वसन्त ऋतुस्रों में नवपद प्रोलीजी की आराधना होती है । इन ऋतु में शारीरिक विकार अधिक होते हैं - उनके शमन के लिए रूक्ष भोजन का विधान है । ओलीजी की तपस्या दैहिक और आध्यात्मिक आरोग्य के लिए संजीवनी औषधि तुल्य है । 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' शरीर निश्चय ही धर्म का प्रथम अवलम्ब है | इसलिए दैहिक स्वस्थता अत्यन्त आवश्यक है । तप 'देह - देवालय' बनाने का अनुपम आधार है । श्री सिद्धचक्र भगवन्त के नवपद हैं - १. अरिहन्त पद, २ . सिद्ध पद, ३. आचार्य पद, ४. उपाध्याय पद, ५. साधु पद, ६. दर्शन पद, ७. ज्ञान पद, ८. चारित्र पद, ६. तप पद । श्राचार्य श्री ( ६ )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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