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________________ तीर्थकर पार्श्वनाथ xxvii सभान्त में उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के शुभाशीष से 'तिलोयपण्णत्ती' ग्रन्थ (तीन भाग) का लोकार्पण पं. उदयचंद जैन (वाराणसी) पं. नीरज जैन (सतना), डॉ. श्री रंजनसूरिदेव (पटना), डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन (दिल्ली), डॉ. एस.पी. पाटिल एवं डॉ. शुभचन्द जी (मैसूर) ने संयुक्त रूप से कर के पूज्य उपाध्याय श्री के कर कमलों में भेंट किया। अनन्तर न्यायाचार्य पं. महेन्द्र कुमार जैन स्मृति ग्रन्थ का विमोचन परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। पूर्व वक्तव्य में डॉ. सत्यप्रकाश जैन (दिल्ली) ने न्यायाचार्य महेन्द्र कुमार जैन का परिचय देते हुए उनके द्वारा अल्पवय में की गई जैनागम, न्याय की सेवा की सराहना की। पं. नीरज जैन (सतना) ने स्मृति ग्रंथ प्रकाशन को महत्वपूर्ण कार्य बतलाया। अनन्तर ग्रंथ प्रकाशकों का श्री दि. चौरासी मथुरा (उ.प्र.) के पदाधिकारियों ने सम्मान किया गया। आज की संगोष्ठी की यह विशेषता रही कि संगोष्ठी की सफलता हेतु. मेघ कुछ देर बरसे और सम्पूर्ण परिसर को शीतलता प्रदान की। . अपने शुभाशीर्वचन के माध्यम से परमपूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने विद्वानों के श्रम की सराहना की और कहा कि अनेक ग्रन्थों के आलोडन के बाद कोई कृति सामने आ पाती है। विद्वान ही विद्वान के परिश्रम को जान सकता है। ... जिसने समयसार की अनुभूति की हो, जो स्वयं समय की साधना करता है, उसी का जीवन सार्थक है। संसार और शरीर का सत्य ज्ञान हो जाने पर वैराग्य हो जाता है। सम्यक्त्वाचरण की भूमिका का निर्वाह करने वाला ज्ञानक स्वभाव की ओर बढ़ता है। शुभचन्द और भर्तृहरि के जीवन की घटना का उल्लेख कर पूज्य उपाध्याय श्री ने कहा कि सत्य आत्मा में है। सोना या विलासिता में नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि जो जाणदि अरहन्तं दव्वन्तगुणत्तपज्जयत्थे हिं से जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं॥
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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