SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८६) भवस्थ रूप में उसकी स्थिति उत्कृष्टतः तैंतीस सागरोपम से अधिक होती है और जघन्य रूप में अन्तर्मुहूर्त की है । (६७६) सास्वादनस्यावल्यः षट् ज्येष्ठा लध्वी क्षणात्मिका। . एकः क्षणो वेदकस्योत्कर्षाजघन्यतोऽपि च ॥६७७॥ सास्वादन समकित की उत्कृष्ट स्थिति छह आवली की है और जघन्य एक समय की है । वेद समकित की उत्कृष्ट और जघन्य दोनों की स्थिति एक-एक क्षण है । (६७७) उत्कर्षापशमिकं सास्वादनं च पंचशः । वेदकं क्षायिकं चैकवारं जीवस्य सम्भवेत् ॥६७८॥ वारान् भवत्य संख्येयान् क्षायोपशमिकं पुनः । अथैतेषां गुण स्थान नियमः प्रतिपाद्यते ॥६७६॥ जीव को उपशम और सास्वादन समकित उत्कृष्टतः पांच बार ही होता है, वेदक समकित जीवन में एक ही बार होता है और क्षायोपशम समकित असंख्यात बार होता है। अब इसके गुण स्थान के नियम के विषय में कहते हैं। (६७८-६७६) • सास्वादनं स्यात्सम्यकत्वं गुण स्थाने द्वितीयके । तुर्यादिषु चतुर्थेषु क्षायोपशमिकं भवेत् ॥६८०॥ · अष्टासु तुर्यादिष्वौ पशमिकं परिकीर्तितम् । 'तुर्यादिष्वेका दशसु सम्यकत्वं क्षायिकं भवेत् ॥६८१॥ तुर्याषु चतुर्वेषु वेदकं कीर्तितं जिनैः । गुणस्थान प्रकरणाद्विशेषः शेष उह्यताम् ॥६८२॥ .. सास्वादन समकित दूसरे गुण स्थान में होता है, क्षायोपशमिक चौवों आदि चार में अर्थात् चार, पांच, छह और सातवें गुण स्थान में होता है । चार से लेकर ग्यारहवें तक उपशम समकित होता है और चार से चौदहवें तक क्षायिक समकित होता है। चार से सातवें गुण स्थान तक वेदक समकित होता है । इस सम्बन्धी विशेष विवरण गुण स्थानक प्रकरण में से जान लेना चाहिए । (६८० से ६८२) सम्यकत्वं लभते जीवो यावत्यां कर्मणां स्थितौ । क्षपितायां ततः पल्यपृथकत्व प्रमित स्थितौ ॥६८३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy