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________________ (१८८) समकित कहलाता है । ऐसे आचार के प्रति केवल रुचि ही रखना वह रोचक समकित कहलाता है और स्वयं मिथ्यादृष्टि होने पर भी अन्य को उपदेश आदि देकर समकित देवे वह समकित दीपक कहलाता है । (६६६-६७०) क्षायोपशमिकादीनां स्वरूपं तूदितं पुरा । सास्वादनयुते तस्मिस्त्रये तत्स्याच्चतुर्विधम् ॥६७१॥ ४- क्षायोपशमिक आदि तीन प्रकार का स्वरूप पहले कहा गया है । इन तीन प्रकार में चौथा सास्वादन प्रकार का मिलाने से सम्यकत्व चार प्रकार का कहलाता है । (६७१) वेदके नान्विते तस्मिंश्चतुष्के पंचधापि तत् । सास्वादनं च स्यादौपशमिकं वमतोऽङ्गिनः ॥६७२॥ · ... ५- पूर्व कहे वे चार भेद और एक पाचवां वेदक भेद मिलाने से समकित के पांच भेद होते हैं । प्राणी उपशम समकित का वमन करता है तब उसे सास्वादन समकित होना कहलाता है । (६७२) . . त्रयाणामुक्त पुंजानां मध्ये प्रक्षीणयोर्द्वयोः । . शुद्धस्य पुंजस्यान्त्याणु वेदने वेदकं भवेत् ॥६७३॥ पूर्ण शुद्ध, आधा शुद्ध और अशुद्ध- इस तरह तीन पुंज-ढेर कहे हैं, उनमें से दो पुंज खत्म होने से शुद्ध पुंज के आखिर का परमाणु वेदन करते प्राणी को वेदक समकित होता है । (६७३) . ... षट्षष्टिः साधिकाब्धीनां क्षायोपशमिक स्थितिः । उत्कृष्टा सा जघन्या चान्तर्मुहूर्त्तमिता मता ॥६७४॥ अब उस प्रकार के समकित की स्थिति के विषय में कहते हैं : क्षयोपशम समकित की उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागरोपम से कुछ विशेष होती है और जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की कही है । (६७४) ज्येष्ठान्या चौपशमिक स्थितिरान्तर्मुहूर्तिकी । क्षायिकस्य स्थितिः सादिरनन्ता वस्तुतः स्मृता ॥६७५॥ उपशम समकित की स्थिति उत्कृष्ट अथवा जघन्य दोनों अन्तर्मुहूर्त की हैक्षायिक समकित मुख्य रूप में सादि अनन्त है । (६७५) साधिकाः स्युर्भवस्थत्वे सा त्रयस्त्रिंशद्ब्धयः । उत्कर्षतो जघन्य च सा स्यादान्तर्मुहूर्तिकी ॥६७६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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