SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .......................................... अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अरिहंत की आवश्यकता प्रत्येक युग की आवश्यकताओं की पूर्ति है। युगों के बदलने पर भी यह पूर्ति प्रतिसमय स्फूर्ति और चुस्ती को वर्धमान करती है। हमारे दैनिक जीवन की जैविक प्रक्रियायें हमारे जीवन का आधार हैं। युग कितने ही बदलें परंतु मनुष्य की खाना-पीना-सोना-चलना आदि प्रत्येक युग की आवश्यकताएँ हैं। जीने के लिये ये जरूरी हैं। इन सारी क्रियाओं को हम हमारी निज संज्ञा से प्रेरित होकर करते हैं। फिर भी व्यवस्थितता के लिए यह प्रक्रिया प्रारम्भ में हमें माता सिखाती है। • संज्ञाकीय वृत्ति के अनुसार चलना प्रत्येक जीव जानते हैं परन्तु साधक दशा में आने पर कम से कम ऊर्जा के द्वारा अधिक से अधिक बल प्राप्त करना होता है। अरिहंत परमात्मा एक चलती-फिरती प्रयोगशाला हैं। किसी प्रयोगशाला (Laboratory) में जाकर प्रयोग न कर वे स्वयं का ही अध्ययन कर स्वाध्याय (Experiment) के द्वारा इसे सिद्ध करते हैं। इस अध्ययन और उसके प्रयोग तथा परिणाम के द्वारा उन्होंने सृष्टि को मूल्यात्मक तथ्यों की अभिव्यक्ति दी; जिसे सिद्ध करने के लिए विज्ञान को प्रयोगशाला में वर्षों लगे फिर भी वे अभिव्यक्तियाँ अपूर्ण और असम्पन्न रहीं। . __ अरिहंत हमारी माता है। उन्होंने साधक को सबकुछ सिखाया। खाना-पीना-उठनाबैठना-सोना-चलना आदि-आदि। वह भी इस तरीके से कि हम कम ऊर्जा लगाकर अधिक से अधिक बल प्राप्त कर सकें। Minimum effort and maximum result यह अरिहंत की Theory है। . जिसे हमने सिर्फ परम्परा मानकर मात्र आज कुछ ही व्यक्ति, सम्प्रदाय या ग्रंथों तक सीमित रखा; उसे युग ने चुनौती दी, विज्ञान ने प्रवृत्ति दी और एक मौन परिणाम सृष्टि का तथ्य बन गया। अनुभव शून्य सृष्टि में पूर्णत्व के प्रयोग पारिणामिक रूप बन गये। आइये ! अब हम अरिहंत के जीवन एवं सिद्धान्त की प्रयोगशाला में पहुंचे जहाँ प्रवृत्तिमय स्थिरता के सिद्धान्त की theory प्राप्त हो सकती है। हम कैसे चलें ? १. ईर्यासमिति ईर्या याने गमनागमन। गमनागमन तो प्रत्येक जीव करते हैं; परन्तु जो विवेक, विधान और व्यवस्था के द्वारा चलते हैं उस विधि को ईर्यासमिति कहा जाता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy