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________________ __ आराधक से आराध्य ७५ ............... ........ करता 'है, अनिकाचित बंध फल देता है अथवा नहीं भी देता है। निकाचना रूप बंध तीसरे भव से लेकर तीर्थंकर के भव में अपूर्वकरण के संख्यातवें भाग तक रहता है। तीर्थंकर पद की प्राप्ति उतनी सरल नहीं होती है। प्रत्येक इसे प्राप्त करने के अधिकारी भी नहीं हो सकते हैं, हां इसकी प्राप्ति के उपायों के अधिकारी अनेक जीव हो सकते हैं, परन्तु इसकी प्राप्ति के तीसरे भव के पूर्व इसका सम्पूर्ण उपभोग असंभव है। चाहे बीस स्थानक बीस बार भी क्यों न आराधा जाय, उसी भव में इसका वेदन नहीं हो सकता है। उसका फल तो भवांतर में ही मिलता है। उपभोग की अवधि काफी लगती है फिर भी इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जैसे उत्तम रसायन या भस्म प्रयोग के तुरंत पश्चात् उसका असर नहीं होता इसके परिणाम में प्रतीक्षा अनिवार्य है। इसीलिए उपार्जन कई भवों से होता है परन्तु निकाचन तीसरे भव में ही होता है क्योंकि पहले बाँधे हुए कर्मों का जोश कम न हो तब तक नये कर्मों का उदय आता नहीं है। अतः नियमतः तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन, आत्मा तीसरे भव में तीर्थंकर होने वाला हो तो ही होता है। इसका उत्कृष्ट पुण्य पूर्व कर्मों के हट जाने पर ही भोगा जाता है। तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना याने एक वही भव दूसरा देव या नरक का और तीसरा भव तीर्थंकर का। इन तीन में से एक भी भव कम करने की शक्ति तो स्वयं तीर्थंकर में भी नहीं है। अनंत, असंख्यात संसार के विस्तार का निस्तार कर इसे मर्यादित करने में समर्थ स्वयं तीर्थंकर की आत्मा भी इन तीन में से एक भी भव को कम नहीं कर सकती। यह तीर्थकर नामकर्म कोई भी साधक चाहे, स्त्री, पुरुष या नपुसंक किसी भी वेद में हो, उपार्जित कर सकते हैं। इसके बारे में श्री भद्रबाहुस्वामी का कहना है कि निश्चय से मनुष्यगति में स्त्री, पुरुष या नपुंसक, शुभलेश्या वाले बीस में से अन्यतर एक या अधिक स्थानों के सेवन द्वारा तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं। निश्चय से यह मनुष्यगति में ही बाँधा जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरिजी भी आवश्यक वृत्ति में प्रस्तुत मन्तव्य पर कहते हैं कि निश्चय से मनुष्यगति में बाँधा जाने वाला यह कर्म मनुष्य गति में स्त्री, पुरुष या इतर अर्थात् नपुंसक द्वारा बाँधा जाता है। परंतु तृतीय कर्मग्रंथ में बंध-स्वामित्व के निरूपण में कहा है-प्रथम तीन नरक के नारकी, वैमानिक देव और गर्भज मनुष्य सम्यक्त्वादि गुणस्थान में वर्तते हुए तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं।२ पूर्वोक्त दोनों मान्यताएँ परस्पर विरुद्ध होने पर भी काललोकप्रकाश में इसका समाधान प्रस्तुत किया गया है-तीर्थंकर नामकर्म जिसने बाँधा है ऐसा मनुष्य आयुष्य १. प्रवचन सारोद्धार, भाग १, द्वार-१०, गा. ३१९, पत्र-८४/१. २. (अ). गा. ६,१०,११. (आ) काललोक प्रकाश, सर्ग, ३0, गा. १८-१९.
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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