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________________ ७४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम योग्य हो, जिसके निर्जरा के साथ शुभ बन्ध की मात्रा अधिक हो, और जिसमें समूचे संसार के जीवों को जिनशासन के रसिक बनाकर संसार से मुक्त कराने की तीव्रतर भावना हो उसी में से कोई तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर सकता है। ___ यह पुण्यानुबंधी पुण्य, बिना भौतिक इच्छा के धर्म की आराधना करने पर ही होता है। आत्मार्थीजन न तो दैविक सुख की इच्छा से धर्म की आराधना करते हैं, न तीर्थंकर-पद प्राप्ति की इच्छा से ही। वे तो सहज भाव से चारित्र का पालन करते रहते हैं। उनको देव-गुरु और धर्म के प्रति भक्ति एवं अनुराग रहता है। इसी से वे . देवाराधना, गुरुभक्ति, वैयावृत्यादि करते हैं और ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप की . आराधना करते हैं। इस आराधना के साथ रहा हुआ संवेग-अनुराग और उसमें रही हुई भावों की उत्कृष्टता ही इस प्रकार की प्रकृति का बंध करती है। यद्यपि एक क्षेत्र में एक तीर्थंकर से अधिक नहीं होते। एक के बाद ही दूसरे होते हैं, तथापि किसी भी समय तीर्थंकर नामकर्म के बँधे हुए जीव, वर्तमान मनुष्यों से अधिक ही होते हैं। उनमें से कोई नरक में और अधिकांश देवलोक में होते हैं। मनुष्यभव में तीर्थंकर नामकर्म बाँध करके देवलोक जाने वाले, जघन्य पल्योपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम प्रमाण आयुष्य वाले देव होते हैं। एक पल्योपम भी असंख्य पूर्वो का होता है और सागरोपम का तो कहना ही क्या? इधर कोई भी तीर्थंकर अधिक से अधिक एक लाख पूर्व तक ही तीर्थंकर रूप में विचर सकते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में कम से कम २0 तीर्थंकर तो लोक में सदा विचरते ही रहते हैं। महाविदेह क्षेत्र में तो सदाकाल तीर्थंकर रहते हैं। यदि एक तीर्थंकर एक लाख पूर्व तक.रहे और उनके बाद दूसरे हों और वे सब एक सागरोपम की स्थिति के देवों में से ही आते रहें, तो वहाँ देवलोक में तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक देव कितने होने चाहिए, कम से कम बीस तीर्थंकर तो सदा मौजूद रहते ही हैं। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक जीव भी अभी देवलोक में उतने मौजूद हैं जितने गर्भज मनुष्य भी अभी इस लोक में नहीं हैं अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक जीवों की संख्या, सदैव मनुष्यों की संख्या से अधिक ही होती है। हजारों साधु और श्रावक इस उत्कृष्ट पुण्यानुबंधीपुण्य का बन्ध करते रहते हैं। बन्ध दो प्रकार का होता है-निकाचना रूप और अनिकाचना रूप। अनिकाचनारूप बन्ध तीसरे भव से पूर्व भी हो सकता है, क्योंकि जघन्य से भी तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध अन्तःक्रोडाक्रोड सागरोपम का है। जब कि निकाचनारूप बन्ध तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में ही होता है; इसलिये कहा है कि "तच्च कहं वेइज्जइ अगिलाए धम्म देसणाईहिं। बज्झइ तं तु भयवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं।" तीर्थंकर नामकर्म का वेदन तो ग्लानिरहित धर्मदेशना द्वारा ही हो सकता है। निकाचित बंध तो अवश्य फल प्रदान
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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