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________________ परिशिष्ठ-२ लेश्या -कषाय से अनुरंजित जीव की मन, वचन और काय की प्रवृत्तिभाव लेश्या कहलाती है । ये छः होती हैं जिसमें तीन शुभ और तीन अशुभ है । जै. सि को. ३/४३४. लोकनाडी -लोक के बीचोंबीच की एक लम्बी रेखा उसे लोक नाड़ी या नाली कहते हैं । जै. सि. बो. सं. ५/४८. विकुर्वणा ___-वैक्रिय शरीरस्थ जीव द्वारा रूप परिवर्तन की प्रक्रिया को विकुर्वणा कहते हैं । वीर्यलब्धि -ज्ञान आदि शक्ति विशेष को लब्धि कहते हैं । ये पांच प्रकार की है-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य । : वैक्रियलब्धि . -देवों और नारकियों के चक्षु अगोचर विशेष लब्धि को वैक्रिय लब्धि .. कहते हैं। देवादि का शरीर वैक्रिय होती है । यह छोटे-बड़े, हल्के-भारी अनेक रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है । किन्हीं योगियों के ऋद्धि के बल से भी, किसी विशेष तप आदि के करने .. पर होती है इसे वैक्रियलब्धि कहते हैं । जै. सि. को. ३/६०९-११. वैमानिक .. ... -देव चार निकाय अर्थात् जाति के हैं-१. भवनपति, २. व्यन्तर, ३ ज्योतिष, ४. वैमानिक । वैमानिक देवों के बारह भेद हैं। व्यवहार नय लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं । जैसे-जो सत् है वह द्रव्य है या पर्याय । स्थूल नय को भी व्यवहार नय कहा जाता है । जै. सि. बो. सं. २/४१५.
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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