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________________ ૨૦૦ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप नहीं है ऐसा साधु पासत्थ अथवा पाशस्थ है । जे. सि. बो. सं. ३५७-३५८. प्रतिपाती अप्रतिपाती - चारित्र रूपी शिखर से गिरने को प्रतिपाती और न गिरने को अप्रतिपाती कहते हैं । जै. ल. १/१०४. I प्रदेश - आकाश के छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम प्रदेश है.. अर्थात् एक परमाणु जितनी जगह घेरे उसे प्रदेश कहते हैं जै. सि. को. ३/१३५. ! पृथ्वीकाय - जिन जीवों का शरीर पृथ्वीरूप हो वे पृथ्वीकार्य कहलाते हैं जै. सि. बो. सं. २/६४. भवसिद्धिक जीव -जिन जीवों के मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता होती है वे भवसिद्धिक या भव्य, उससे रहित को अभव्य कहते हैं । जै. सि. बो. सं. १/७. भव्य - अभव्य - देखो. भवसिद्धिक जीव 1 · मतिश्रुत अज्ञान - मिध्यात्व के उदय के साथ विद्यमान ज्ञान को भी अज्ञान कहा जाता है जो तीन प्रकार का है - मत्याज्ञान, श्रुताज्ञान, विभंगज्ञान | मार्गणा - देखो ईहा | मोहनीय कर्म - आठ कर्मों में मोहनीय सर्व प्रधान है। जो मूढ़ करता है वह मोहनी कर्म है । इसके दो भेद हैं - १. दर्शनमोहनीय २. चारित्रमोहनीय |
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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