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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कायिक, वाचिक तथा मानसिक तप जो फलाकांक्षारहित और समाहित. चित्त पुरुषों द्वारा श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह सात्विक तप है ।' यहाँ दो बाते हमारे सामने आती है-१. श्रद्धा विरहित क्रिया तामसिक एवं श्रद्धायुक्त की क्रिया सात्विक है । २. श्रद्धा के साथ की जाने वाली क्रिया फलाकांक्षा से रहित होनी चाहिये । जैनदर्शन शंका, कांक्षा को सम्यक्त्व के अतिचार स्वीकार करता है। __इस प्रकार अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि मेरा अज्ञानजन्य मोह जो कि समस्त संसार रूप अनर्थ का कारण था नष्ट हो गया है ।. आपकी कृपा से मेरे संशय नष्ट हो गये हैं तथा मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है । आचार्य शंकरभाष्य में कहते हैं कि " जिसके प्राप्त होने पर सब ग्रनधियाँ-संशय विच्छिन्न हो जाते हैं ।" ____ इस प्रकार गीता में श्रद्धा का अवरोध तत्त्व मोह एवं तज्जन्य ग्रंथियों को स्वीकार किया है। जैन परम्परा में सामान्यतया सम्यग्दर्शन दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार हुआ है और अधिक से अधिक उसमें यदि श्रद्धा का तत्त्व समाहित है तो वह तत्त्वश्रद्धा है, जबकि गीता में श्रद्धा शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा ही माना गया है । इस प्रकार गीता में श्रद्धा के स्वरूप पर विचार करते समय यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैनदर्शन में जो श्रद्धा का अर्थ हैं, गीता में उससे भिन्न है । गीता को श्रद्धा पर हम प्रारम्भ से अवलोकन करें तो पायेंगे कि प्रथम ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रद्धा का होना अनिवार्य माना गया है। उसके पश्चात् भक्ति के लिए श्रद्धा को आवश्यक १. श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः । अफलाकांक्षिभिर्युक्तः सात्विकं परिचक्षते ॥ १७-१७, १७-११ ॥ . २. नष्टो मोह स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।। वही, १८-७३ ॥ ३. यस्या लाभात् सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः । शां० भा० गीता) वही ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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