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________________ अध्याय ३ * इसलिए कहा जाता है कि वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के पीछे ही लाभदायक है ।' - यहाँ कृष्ण यज्ञ यागादि कर्म में, दान एवं तप में भी श्रद्धा का होना परमावश्यक स्वीकार करते हैं। श्रद्धा बिना की क्रिया को निष्फल स्वीकार किया गया है। ठीक इसके विपरीत जो श्रद्धा से युक्त हैं किन्तु शास्त्रविधि-विधान को छोड़कर यजन करते हैं उनकी निष्ठा कौनसी है १ सात्विक, राजस या तामस ? यहाँ महाभारत और गीता में समानता दिखाई देती है। डॉ. राधाकृष्णन् के अनुसार-भगवद्गीता, जो महाभारत के भीष्म पूर्व का एक भाग है । अतः यहाँ साम्य होना स्वाभाविक है । उपरोक्त प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण महाभारत के अनुसार ही देते हैं कि “मनुष्यों की वह बिना शास्त्रीय संस्कारों के केवल स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकार की होती है । इसका विवेचन करते हुए कहा है कि सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है तथा यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है वह स्वयं भी वही है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा है वैसा ही उसका स्वरूप है। श्रद्धा विरहित यज्ञ तामसी है। तथा १. अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ वही, १७-२८ ।। २. ये शास्त्र विधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहोरजस्तमः ॥ वही, १७-१॥ ३. भारतीय दर्शन, भाग १०, नवां अध्याय, पृ० ४७८ ।। ४. विविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चव तामसी चेति तां शृणु ॥ गीता, १७ २ ॥ . ५. सत्त्वानुरूपा मर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव स ॥ वही, १७-३ ।। ६. श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ वही, १७-१३ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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