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________________ अध्याय ३. १९९ की चर्चा वेदांतसूत्र में प्रारंभ में ही की है । “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" में "अथ" शब्द का अर्थ है पश्चात् । तो किससे पश्चात् ब्रह्म की जिज्ञासा होती है ? इसका समाधान करते हुए कहा कि जो विवेक वैराग्य आदि साधनचतुष्टय युक्त है वह ब्रह्म जिज्ञासा का अधिकारी है । ज्ञानमार्ग सर्व संसारियों के लिए सरल नहीं । ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का अधिकार जिसने प्राप्त किया हो उसे ही हो सकता है कारण कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त होने वाली भूमिका तैयार होनी चाहिये । इस भूमिका को तैयार करने के लिए वेदांतदर्शन में चार साधन बताये हैं । ये चार साधन होने पर ही सत्य-वस्तु (आत्मा) पर श्रद्धा होती है अन्यथा नहीं, ऐसा विवेक चूडामणि में कहा है ।"२ श्रीमद् शंकराचार्य भी अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य के प्रारंभ में नैतिक साधन चतुष्टय को तत्त्वज्ञान के अधिकारी के लिए आवश्यक मानते है । ऐसा व्यक्ति ही वेदांत का सच्चा अधिकारी है । चार साधन - . . . १ विवेक (नित्यानित्यवस्तु विवेकः) सारासार समझने की शक्ति को विवेक कहा गया है । जड़ प्रकृति और चैतन्यमय पुरूष के वीच का . भेद समझने की बुद्धि को वेदांतशास्त्र में विवेक कहा है। विवेकिन् अर्थात् ज्ञानी । सत् और असत् , नित्य और अनित्य वस्तु को जानने की इस विवेक शक्ति को सम्यग्दृष्टि भी कहते है ।' कथन मात्र से . अथवा वांचन मात्र से ही विवेकरूपी साधन प्राप्त नहीं हो सकता, इसकी अर्थानुभूति आवश्यक है। २. वैराग्य -( इह-अमुत्र [अर्थ]-फल-भोग-विरागः ) वैराग्य ... अर्थात् संसार का आत्यंतिक त्याग करना यह अर्थ नहीं बल्कि . १. ब्र० स० । १-१-१॥ २.श्रीमद् शंकराचार्यनुं तत्वज्ञान, पृ० १२१ ।। . ३. ब्र० स०, शांकर भाष्य, १-१-१॥ ४. श्रीमद शंकराचार्य- तत्वज्ञान । पृ० ६२७ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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