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________________ १९८ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप भी यही सूचित करता है। चित्त की सम्प्रसाद-आनन्दायक अवस्था श्रद्धा है । आनन्दमय चित्त में ही श्रद्धा स्थान जमा सकती है अतः श्रद्धा प्रथमावस्था है आत्मदर्शन में आनन्द आने पर श्रवणेच्छा होगी, चिंतन मनन की अवस्था हो सकेगी। जैनदर्शन यही अवस्था सम्यग्दर्शन की स्वीकार करता है, " तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं " जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान सम्यग्दर्शन वहाँ रूढ़ है। वेदांतदर्शन में एकमात्र यही एक स्थल है जहाँ आत्मदर्शन की चर्चा की गई है। अन्य श्रुतियों में, ब्राह्मणों तथा उपनिषद् में दर्शन व ज्ञान को भिन्न नहीं स्वीकार किया । वहाँ आत्मज्ञान, तत्त्वज्ञान शब्दों के साथ इसकी प्ररूपणा की है और इसे ही मुक्ति के साधन के रूप में मान्य किया है। वेदांतसूत्र पर सर्वप्राचीन उपलब्ध भाष्य शंकराचार्य का मान्य है । इस पर शंकर भाष्य करते हुए कहते हैं कि अविद्या से बंध और आत्मविद्या से ही मोक्ष हो सकता है । इस प्रकार ब्रह्मसूत्र में दर्शन और ज्ञान को भिन्न मिन्न न मानकर एकरूपता से स्वीकार किया है और इसे आत्मज्ञान, ज्ञान, विद्या, तत्त्वज्ञान आदि शब्दों से व्यवहृत किया है । ज्ञान की पूर्व भूमिका में वहाँ विवेक, वैराग्य, श्रद्धा को भी मान्यता दी है, जिसका हम यथावसर उल्लेख करेंगे। आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान के तुल्य नहीं कह सकते क्यों कि यहाँ यह ज्ञान विवेक पर आधारित है। स्व-पर विवेक तथा मिथ्यात्व या अविद्या की निवृत्ति से होने वाला ज्ञान सम्यग्दर्शन से ही साम्य रखता है । यहाँ सम्यग्दर्शन में सम्यगज्ञान अन्तर्निहित है । वेदांतदर्शन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के अधिकारियों १. अविद्याकृतत्वात् बन्धस्य विद्यया मोक्ष उपपद्यते, ब्र० सू०, शॉ०भा०।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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