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________________ अध्याय ३. १८५ समान यह कथानक दिया कि जंगल में गुरु द्वारा शिष्य को तत्त्वोपदेश दिया जा रहा था । तब पिशाच ने भी उसे छिपकर सुना, और तत्त्वज्ञान प्राप्त कर विवेकी हुआ ।' ____विवेकोत्पत्ति के लिए पुनः पुनः कहा कि "उपदेश को पुनःपुनः दुहराने से भी सिद्धि हो जाती है"२ । तथा पिता व पुत्र के समान दोनों के देखें जाने से भी विवेक होता है । यहाँ विवेक की उत्पत्ति में परोपदेश का कथन है । जैनदर्शन में इसे 'अधिगम' संज्ञा दी गई है जो परोपदेश, शास्त्रश्रवण व जातिस्मरण आदि निमित्तों से होता है । . यहाँ तक हमें जैन सिद्धांतों और सांख्यसिद्धांतों में सामान्यतया साम्य दिखाई देता है किन्तु कुछ तथ्य ऐसे भी हैं जो कि जैनमत से बिलकुल विपरीत है । सांख्यदर्शन यह स्वीकार करता है कि प्रकृति से ही बंध और मोक्ष होता है पुरुष से नहीं । अर्थात् बंध व मोक्ष प्रकृति के कारण ही पुरुष को होता है, पुरुष अकर्ता है । वह तटस्थ, मध्यस्थ भाव से द्रष्टा बना रहता है । वस्तुतः पुरुष निर्गुण और अपरिणामी है अतः न वह बंधता है और न संसरण करता है और न मुक्त होता है अपितु प्रकृति ही (सूक्ष्म शरीर के रूप में) असंख्य पुरुषों • के आश्रय से बंधती है, संसरण करती है और मुक्त होती है ।' इतना तो जैन दर्शन भी मान्य करता है प्रकृत्तिरूप कर्म के कारण आत्मा संसार में भ्रमण करती है और कमी के समूल क्षय से मोक्ष होता है किंतु कर्मक्षय करने के लिए आत्मा को प्रबल १. सांख्यदर्शन, सं० शर्मा । पृ० १६८ ॥ २. आवृत्तिरसकृदुपदेशात् । सांख्यसूत्र, ४-३ ॥ ३. पितापुत्रवदुभयोदृष्टत्वात् । सांख्यसूत्र, ४-४ ॥ ४. (क) सांख्यसूत्र, ३-७२, १-७, १-१२, १-१३, १-१६, १-१४ ॥ (ख) सांख्यकारिका । ६२, ६५, २० ॥ (ग) सांख्य प्र० भा० १-१ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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