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________________ १७२ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यग्दृष्टि के लिए कहा गया है कि-" वह आर्य श्रावक सम्यग्दृष्टि होता है जिसकी दृष्टि सीधी होती है, धर्म में अत्यंत श्रद्धावान् होता है और इस सद्धर्म को प्राप्त होता है।" इसके अर्थ को अधिक स्पष्ट करते हुए पुनः कहा गया कि " जो आर्य श्रावक अकुशल = बुराई और अकुशल मूल को जानता है; कुशल = भलाई, पुण्य को जानता है और कुशलमूल को जानता है वह सम्यग्दृष्टि होता है । यहाँ शंका करते हैं कि अकुशल और अकुशलमूल एवं कुशल एवं कुशलमूल क्या है ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि प्राणातिपात, अदत्तादान, काम में मिथ्याचार, मृषावाद, पिशुन वचन, परुष वचण, संप्रलाप, अभिध्या, · व्यापाद एवं मिथ्यादृष्टि को. अकुशल कहा है एवं अकुशल मूल है-लोभ, द्वेष और मोह । ___ इसके विपरीत प्राणातिपात से लेकर संप्रलाप तक में विरति तथा अन्-अभिध्या. अ-व्यापाद, सम्यग्दृष्टि को कुशल कहा जाता है । अलोभ, अद्वेष और अमोह कुशलमूल है । इस प्रकार जो कुशलमूल को जानता है, वह रागानुशय का परित्याग करके, प्रतिघ (-प्रतिहिंसा) अनुशय को हटाकर, “अस्मि' अर्थात् “में हूँ" इस दृष्टिमान् अनुशय का अन्मूलन कर, अविद्या को नष्ट कर विद्या को उत्पन्न कर, इस जन्म में दुःखों का अन्त करने वाला होता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है । इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि की अन्य पर्यायों का कथन किया है कि जो दुःख है, दुःख का कारण है, दुःखों से निवृत्ति एवं दुःखों से निवृत्ति के उपायों को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है । उन पर श्रद्धा करता है । एवं आहार, जरामरण, तृष्णा, वेदना, स्पर्श, षडायतन नाम-रूप, विज्ञान, संस्कार, अविद्या एवं आस्रव-इन सभी को, इनके १. मज्झिमनिकाय, १-१-९ । २. म०नि०, वही ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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