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________________ १३८ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप आगे ग्रन्थकार कहते हैं कि मिथ्यात्व के उदय का क्षय होने पर वह जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है कि जिस सम्यक्त्व के लाभ से पूर्व में प्राप्त हुए ऐसे अरिहन्त देवादिक तत्त्व के श्रद्धानरूप आत्महित को प्राप्त करता है । ' अन्य सब विवरणं कषाय- प्राभृत के अनुसार किया गया हैं इस प्रकार कर्म - प्रकृति में सम्यक्त्वविषयक सामग्री प्राप्त होती है । (इ) (१) श्रीमद् हरिभद्रसूरि हरिभद्रसूरि जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार है । इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना भी की । हरिभद्रसूरि का जन्म वीरभूमि मेवाड़ के चित्रकूट / चित्तोड नगर में हुआ । प्रभावकचरित्र में वर्णित लेख के अनुसार हरिभद्र के दीक्षा - गुरु आचार्य जिनभर सिद्ध होते हैं। किन्तु हरिभद्र के खुद के उल्लेखों से ऐसा फलित होता है कि जिन भट उनके गच्छपति गुरु थे; जिनदत्त दीक्षाकारी गुरु थे, याकिनी महत्तरा धर्मजननी अर्थात् धर्ममाता थी, उनका कुल विद्याधरगच्छ एवं सम्प्रदाय सिताम्बर - श्वेताम्बर था । ' जैन परम्परा के अनुसार विक्रम संवत् ५८५ अथवा वीर संवत् १०५५ अथवा ई० सं० ५२९ में हरिभद्रसूरि का देहावसान हो गया था। इस मान्यता को हर्मन जेकोवी ने असत्य किया । इन सब प्रमाणों के आधार पर मुनि श्री जिनविजयजी इनका समय ७०० से ७७० ई० स० अर्थात् वि० सं० ७५७ से ८२७ तक निश्चित करते हैं । १. मिच्छत्तदए खीणं, लहइ सम्मत्तमो समय सो । लंभेण जस्स लप्भइ, आयहिय मलद्ध पुत्र्धं जं ।। १८ ।। - कर्म - प्रकृति उप० क० गाथा १८ ॥ २. जैन साहित्य बृहद् इतिहास, भाग ३, पृ० ३६१ ॥ ३. वही, पृ० ३५९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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