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________________ अध्याय २.. दर्शनमोह के उपशम के योग और लेश्या का यहाँ कथन किया है। पुनः कथन करते हैं कि-- दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के मिथ्यात्व कर्म का उदय जानना चाहिए । किन्तु उपशांत अवस्था में मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होता, तदन्तर उसका उदय भजनीय है । कर्मप्रकृतियों के विषय में कहते हैं कि दर्शनमोहनीय की तीन कर्मप्रकृतियाँ सभी स्थितिविशेषों के साथ उपशांत (उदय के अयोग्य ) रहती हैं तथा सभी स्थिति विशेष नियम से एक अनुभाग में अवस्थित रहते हैं । अब दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के उस अवस्था में ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध किंनिमित्तक होता है उसके निर्धारण के लिए आगे का सूत्र है___दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के नियम से मिथ्यात्वनिमित्तकबन्ध जानना चाहिये किंतु उसके उपशांत रहते हुए मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नहीं होता तथा उपशांत अवस्था के समाप्त होने के बाद मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध भजनीय है।' - तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीय के उपशमन के पूर्व मिथ्यात्वबंध होता है, किंतु उपशांत अवस्था में नहीं होता, उस अवस्था के पश्चात् होता भी है और नहीं भी होता। १. मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्वं । . उवसन्ते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो ॥ -वही, गाथा ९९, पृ० ३०७ ॥ २. सव्वेहि दिद्धिविसेसेहिं उबसन्ता हाँति तिण्णि कम्मंसा । एकम्हि य अणुभागे णियमा सवे दिह्रिविसेसा ॥ -गाथा १००, पृ० ३०९ ॥ ३. मिच्छत्तपच्चयो खलुबन्धो उवसामगस्स बोद्धवो । उवसन्ते आसाणे तेण परं होइ भजियव्यो ।।। -गाथा १०१, पृ० ३११ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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