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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों (6 २ में जानना चाहिए। वह नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्त होता है ' कर्मप्रकृति " में भी इसी बात का समर्थन किया है यहाँ दर्शनमोह के उपशमन के अधिकारी की विशेषता का कथन कर आगे सूत्रकार कहते हैं कि - दर्शनमोह का उपशमन करने वाले जीव व्याघात से रहित होते हैं और उस काल के भीतर सासादन गुणस्थान को प्राप्त नहीं होते दर्शनमोह के उपशांत होने पर सासादन गुणस्थान की प्राप्ति भजितव्य है किन्तु क्षीण होने पर सासादनगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती 1 १३२ यहाँ उल्लेख किया है कि दर्शनमोह का उपशमक व्याघात से अर्थात् मरणादि से रहित होता है । सासादन सम्यक्त्व को वह उपशांत होने पर विकल्प से प्राप्त करता है, किन्तु उसके पूर्व व उसके पश्चात् नहीं । अब आगे ग्रंथकार कहते हैं कि - दर्शनमोह के उपशमन का प्रस्थापक जीव साकार उपयोग में विद्यमान होता है किन्तु उसका निष्ठापक और मध्यअवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों में से किसी एक योग में विद्यमान तथा तेजोलेश्या के जघन्य अंश को प्राप्त वह जीव दर्शनमोह का उपशमक होता है" । १. दंसणमोहस्सुवसामगो दु चदुसु वि गदीसु बोद्धव्यो । पंचिदिओ य सण्णी नियमा सो होइ पज्जन्तो || - क० पा०, गाथा ९५, पृ० २९६ ।। २. कर्म - प्रकृति, उपशमनाकरण, गाथा ३ पृ० ६०७ ॥ ३ उवसामगो च सव्वो णिब्वाघादो तहा णिरासाणो । वसन्ते भजियश्वो णीरासाणो य खीणम्मि || - क० पा० गाथा ९७, पृ० ३०२ ॥ ४. सागारे पट्टवगो विगो मज्झिमो य भजियन्यो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए || - वही, गाथा ९८, पृ० ३०४ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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