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________________ अतिशय अतिशय-यानी उत्कृष्टता, विशिष्ट चमत्कारी गुण । जो आत्मा ईश्वर - स्वरूप होकर पृथ्वी मंडल पर आता है उसमें सामान्य आत्माओं की अपेक्षा कई विशेषताएँ होती हैं। उन्हीं विशेषताओं को शास्त्रकारोंने 'अतिशय ' कहा है। तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय होते हैं। वे इस प्रकार हैं : १. शरीर अनंत रूपमय, सुगंधमय, रोगरहित, प्रस्वेद (पसीना ) रहित और मलरहित होता है। २. उनका रुधिर और मांस दुग्ध के समान सफेद और दुर्गन्ध-हीन होता है। ३. उनके आहार तथा निहार चर्मचक्षु - गोचर नहीं होते हैं। (यानी उनका भोजन करना और पाखाने पेशाब जाना किसी को दिखायी नहीं देता है। ) ४. उनके श्वासोच्छास में कमल के समान सुगंध होती है। ५. समवसरण केवल एक योजना का होता है, परंतु उसमें कोटाकोटि मनुष्य, देव और तिर्यंच बिना किसी प्रकार की बाधा के बैठ सकते हैं। ६. जहाँ वे होते हैं वहाँ से पच्चीस योजन तक यानी सौ कोस तक आसपास में कोई रोग नहीं होता है और जो पहले होता है वह भी नष्ट हो जाता है। यह अनिकाचित रोग के लिए कथन है। लोगों का पारस्परिक वैरभाव नष्ट हो जाता है। ७. ८. मरी का रोग नहीं फैलता है। ६. अतिवृष्टि-आवश्यकता से ज्यादा बारिश नहीं होती है। १०. अनावृष्टि - बारिश का अभाव नहीं होता है। ११. दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 323 : -
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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