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________________ वृद्ध मंत्री ने अति नम्र शब्दों में विनती की – 'महाराज! नीति यह है कि, अगर दुश्मन बलवान हो तो उससे मेल कर लेना चाहिए। फिर पार्थकुमार तो सामान्य शत्रु नहीं है, ये तो देवाधिदेव हैं। सारी दुनिया के पूज्य हैं। इनसे संधी करने में, इनकी सेवा करने में इस भव और पर भव दोनों भवों में कल्याण है। ____ राजा यवन ने मंत्री की बात मानकर कुशस्थल का घेरा उठाने का हुक्म दिया। फिर मंत्रीसहित वह पार्श्वकुमार की सेवा में हाजिर हुआ। दयालु कुमार ने उसे अभय देकर विदा किया। घेरा उठा जाने पर कुशस्थली के निवासियों ने शांति का वास लिया। शहर के हजारों नरनारी अपने रक्षक के दर्शनार्थ उलट पड़े। राजा प्रसेनजित भी अनेक तरह की भेटें लेकर पार्श्वकुमार की सेवा में हाजिर हुआ और विनती की - 'आप मेरी कन्या को ग्रहण कर मुझे उपकृत कीजिए।' पार्थकुमार बोले-'मैं पिताजी की आज्ञा से कुशस्थली की रक्षा करने आया था। ब्याह करने यहां नहीं आया। इसलिए महाराज प्रसेनजित मैं आपका अनुरोध स्वीकारने में असमर्थ हूं।' फिर पार्यकुमार अपनी फौज के साथ बनारस लौट गये। प्रसेनजित भी अपनी कन्या प्रभावती को लेकर बनारस गया। महाराज अश्वसेन ने अत्याग्रह कर पार्थकुमार का ब्याह प्रभावती के साथ कर दिया। पतिपत्नी आनंद से दिन बिताने लगे। - एक दिन पार्श्वकुमार अपने झरोखे में बैठे हुए थे उस समय उन्होंने देखा कि, लोगे फूलों भरी छाबें और मिठाई मरी थालियां अपने सिरों पर रखे चले जा रहे हैं। पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि शहर के बाहर कोई कमठ नाम का तपस्वी आया है और वह पंचाग्नि तप की घोर तपस्या कर रहा है। उसीके लिए ये भेट ले जा रहे हैं। पार्श्वकुमार भी उस तपस्वी को देखने के लिए गये। - यह कमठ तपस्वी कमठ का जीव था। जो सिंह के भव से मरकर अनेक योनियों में जन्मता और दुःख उठाता हुआ एक गांव में किसी गरीब : श्री तीर्थंकर चरित्र : 187 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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