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________________ जाकर कहा – 'अश्वसेन के युवराज पार्थकुमार की आज्ञा है कि, हे कलिंगाधिपति यवन! तुम तत्काल ही अपने देश को लौट जाओ अगर ऐसा नहीं करोगे तो मेरी सेना तुम्हारा संहार करेगी इसका उत्तरदायित्व हमारे सिर न रहेगा?' राजा यवन क्रुद्ध होकर बोला – 'हे दूत! अपने राजकुमार को जाकर कहना कि, अपनी सुकुमार वय में अपने मौत के मुंह में न डाले। कलिंग की सेना के साथ लड़ाई करना अपनी मौत को बुलाना है। अगर अपनी जान प्यारी हो तो कल शाम के पहले तक यहां से लौट ज़ाय वरना परसों सवेरे ही कलिंग की सेना तुम्हारा नाश कर देगी?' दूत बोला – 'महाराज कलिंग! मुझे आप पर दया आती है। जिन पार्थकुमार की इंद्रादि देव सेवा करते हैं उनके सामने आपका लड़ाई के लिए खड़े होना मानो शेर के सामने बकरी का खड़ा होना है। इसलिए आप अपनी जान बचाकर चले जाइए। वरना जिस मौत का आप बार-बार नाम ले रहे हैं वह मौत आपको ही उठा ले जायगी। .. राजा यवन के दरबारियों ने तलवारें खींच ली और वे उस मुंहजोर दूत पर आक्रमण करने को तैयार हुए। वृद्ध मंत्री ने उसको रोका और कहा- 'हे सुभटो! दूत अवध्य होता है। फिर यह तो एक ऐसे महान् बलशाली का दूत है जिसकी इंद्रादि देवं पूजा करते हैं। सचमुच ही हम उनके सामने तुच्छ हैं।' फिर दूत को कहा – 'तुम जाकर पार्श्वकुमार से हमारा प्रणाम कहना और निवेदन करना कि, हम आपकी सेवा में शीघ्र ही हाजिर होंगे।' दूत चला गया। फिर मंत्री ने राजा यवन को कहा - 'महाराज! अपने और दुश्मन के बलाबल का विचार करके ही युद्ध आरंभ करना चाहिए। मैंने पता लगाया है कि, पार्श्वकुमार और उनकी सेना के सामने हम और हमारी सेना बिलकुल नाचीज है। इसलिए हमारी भलाई इसी में है कि, हम पार्श्वकुमार के पास जाकर उनसे संधी कर लें।' राजा यवन बोला – 'मंत्री! क्या मुझे और मेरी बहादुर सेना को किसी के सामने सिर झुकाना पड़ेगा? मुझे यह बात पसंद नहीं है। इस अपमान से लड़ाई में मरना मैं अधिक पसंद करता हूं।' : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 186 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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