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________________ संसार-त्यागी, निष्परिग्रही साधुओं को इस प्रकार दान देने और उनकी तब तक सेवा न कर सका इसके लिए पश्चात्ताप करने से उसके अंतःकरण की शुद्धि हुई और उसे मोक्ष के कारण में अतीव दुर्लभ बोधीबीज (सम्यक्त्व) प्राप्त हुआ। रात्रि को वह फिर साधुओं के पास गया। धर्मघोष आचार्य ने उसे धर्म का उपदेश दिया। सुनकर उसे अपने कर्तव्य का मान हुआ। वर्षाऋतु बीतने और मार्गों के साफ हो जाने पर साहूकार वहां से रवाना हुआ और अपने नियंत स्थान पर पहुंचा। साधुओं ने भी अपने गंतव्य स्थान की ओर विहार किया। दूसरा भव : मुनियों को शुद्ध अंतःकरण से दान देने के प्रभाव से 'धन' सेठ का जीव, मरकर, उत्तर कुरुक्षेत्र में, सीता नदी के उत्तर तट की तरफ, जंबू वृक्ष के उत्तर भाग में, युगलिया रूप से उत्पन्न हुआ। उस क्षेत्र में हमेशा एकांत सुखमा आरा रहता है। वहां के युगलियों को चौथे दिन भोजन करने की इच्छा होती है। उनका शरीर. तीन कोस का होता है। उनकी पीठ में दो सौ छप्पन पसलियाँ होती हैं। उनकी आयु तीन पल्योपम की होती है। उन्हें कषाय बहुत थोड़ी होती है, ऐसे ही माया-ममता भी बहुत कम होती है। उनकी आयु के जब ४६ दिन रह जाते हैं तब स्त्री के गर्भ से एक संतान का जोड़ा उत्पन्न होता है। उस क्षेत्र की मिट्टी शर्करा के समान मीठी होती है। शरद ऋतु की चंद्रिका के समान जल निर्मल होता है। वहां दश प्रकार के कल्पवृक्ष इच्छित पदार्थ को देते हैं। इस प्रकार के स्थान में धन सेठ का जीव आनंद-भोग करने लगा। युगलिये अपनी आयु समाप्त होने तक (४६ दिन तक) अपनी संतान का पालन कर अंत में वे मरने पर स्वर्ग में जाते तीसरा भव :__ युगलिया का आयु पूर्ण कर धनसेठ का जीव पूर्व संचित पुण्य-बल के कारण सौधर्म देवलोक में देव हुआ। (युगलिये मरकर नियमा देव लोक : श्री तीर्थंकर चरित्र : 3 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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