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________________ - १. श्री आदिनाथ् चरित्र आदिमं पृथिवीनाथ-मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ . (सकलार्हत् - स्तोत्र) भावार्थ - पृथ्वी के प्रथम स्वामी, प्रथम परिग्रह-त्यागी (साधु) और प्रथम तीर्थंकर श्री 'ऋषभ देव स्वामी की हम स्तुति करते हैं। विकास : जैनधर्म यह मानता है कि, जो जीव श्रेष्ठ कर्म करता है, वह धीरेधीरे उच्च स्थिति को प्राप्त करता हुआ अंत में आत्मस्वरूप का पूर्ण रूप से विकास कर जिन कर्मों के कारण वह दुःख उठाता है उन कर्मों का नाश कर, ईश्वरत्व प्राप्त कर, सिद्ध बन जाता है-मोक्ष में चला जाता है और संसार के जन्म, मरण, से छुटकारा पा जाता है। जैनधर्म के सिद्धांत, उसकी चर्या और उसके क्रियाकांड मनुष्य को इसी लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और उसे श्रेष्ठ कर्म में लगाते हैं। जैनधर्म के आगमों में इन्हीं श्रेष्ठ कर्मों के शुभ फलों का और उन्हें छोड़ने वालों पर गिरनेवाले दुःखों का वर्णन किया गया है। - भगवान आदिनाथ के जीव की जब से मुख्यतया उत्क्रांति होनी प्रारंभ हुई तब से लेकर आदिनाथ तक की स्थिति का वर्णन संक्षेप में यहां दे देने से पाठकों को इस बात का ज्ञान होगा कि जीव कैसे उत्तम कर्मों और उत्तम भावनाओं से ऊँचा उठता जाता है; आत्माभिमुख होता जाता है। प्रथम भव : क्षितिप्रतिष्ठित नगर में 'धन' नामक एक साहूकार रहता था। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 1 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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