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________________ चले गये। उसके बाद रत्नवृष्टि की खबर सुनकर बलभद्र और वासुदेव सुमति के पास आये। इस घटना से सबको विस्मय हुआ। बालिका के अलौकिक कार्य से प्रसन्न होकर दोनों भाइयों ने सोचा कि इस बालिका के लिए कौन सा योग्य वर होना चाहिए। आखिर उन्होंने महानंद नामक मंत्री से सलाह करके स्वयंवर करने का निश्चय किया। - अब स्वयंवर की तैयारीयां होने लगी। एक विशाल मंडप की रचना हुई। सब राजाओं और विद्याधरों के यहां निमंत्रण भेजे गये। . . निश्चित दिन को बड़े-बड़े राजा महाराजा एकत्रित हुए। सुमति भी सोलह शृंगार करके अपनी सखी सहेलियों के साथ हाथ में वरमाला लिये हुए मंडप में उपस्थित हुई। उसने एक बार सबकी तरफ देखा। स्वयंवर मंडप में उपस्थित सुमति के पाणिप्रार्थी इस रूप की अलौकिकं मूर्ति को देखकर आश्चर्य में डूब गये। उसी समय मंडप के मध्य में स्वर्णसिंहासन पर विराजमान एक देवी प्रकट हुई। देवी ने अपनी दाहिनी भुजा उठा कर सुमति को कहा – 'मुग्धे धनश्री! विचार कर! अपने पूर्व भव का स्मरण कर! यदि याद नहीं पड़ता हो तो सुन! पुष्करवर द्वीपार्द्ध में, भरतक्षेत्र के मध्यखंड में विशाल समृद्धिवाला श्रीनंद नामक एक नगर था। उसमें महेन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी अनंतमति नाम की एक रानी थी। उनकी दो पुत्रियां हुई। उनमें से कनकश्री नाम की कन्या तो मैं हूं और धनश्री तूं। जब हम दोनों युवतियां हुई तब एक समय दोनों प्रसंग वश गिरि पर्वत पर चढ़ी। वहां एक रम्य स्थान में हमे नंदनगिरि नामक मुनि के दर्शन हुए। बड़े भक्तिभाव से हमने उनकी देशना सुनी। फिर हमने गुरुजी से निवेदन किया कि हमारे योग्य कोई आज्ञा दीजिए। तब गुरुजी ने हमें योग्य समझ श्रावक के बारह व्रत समझाये हमने उन्हें, अंगीकार कर, निर्दोष पालना शुरू किया। एक समय हम दोनों फिरती हुई अशोक वन में जा निकली। उसी समय त्रिपृष्ट नगर का स्वामी वीरांग नामक एक जवान विद्याधर हमको हर ले गया। परंतु उसकी स्त्री वज्रश्यालिका ने दयाकर हमें छोड़ने के लिए : श्री शांतिनाथ चरित्र : 116 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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