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________________ योगिराज श्रीमद् मानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५२ मैं बाह्य वस्तुओं का कर्ता नहीं हूँ और क्रिया-करनी से भी मैं भिन्न हूँ ॥३॥ न मैं (प्रात्मा) देखा जा सकता हूँ, न स्पर्श किया जा सकता हूँ। अथवा में दर्शन नहीं हैं। सात नयों में से एक-एक नय को एकान्त से मानकर जो दर्शन उत्पन्न हए हैं, वैसा मैं नहीं हैं। प्रात्मा पाठ प्रकार के स्पर्शों से भिन्न है, अतः मैं स्पर्श नहीं हूँ। मैं खट्ट, मीठे, कड़वे आदि रसों से भिन्न हूँ। मैं गन्ध भी नहीं हूँ। न मेरा (आत्मा का) स्वाद लिया जा सकता है, न मेरी गन्ध ली जा सकती है.अर्थात् प्रात्मा के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श कुछ भी नहीं है। श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि चैतन्य गुणयुक्त यह आत्मा मैं हूँ। अनन्त ज्ञान, दर्शन, प्रानन्द एवं वीर्य युक्त प्रात्मा है; सत्, चित् एवं प्रानन्द स्वरूप यह प्रात्मा है। सेवकगण अर्थात् साधकगण इस रूप पर बलिहारी जाते हैं अर्थात् स्वयं को उत्सर्ग कर देते हैं ।।४।। (१५) (राग-रामगिरि) मुने माहरो कब मिलसे मन-मेलू । मन मेलू बिन केलि न कलिये, वाले कवल कोई वेलु ।। मुने०॥१॥ आप मिल्यां थी अन्तर राखे, मनुष्य नहीं ते लेलू । आनन्दघन प्रभु मन मिलिया विण, को नवि विलगे चेलू । मुने०॥२॥ अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि मेरे मन का मिलापी प्रिय (आत्मा) शुद्ध चेतन कब मिलेगा? अब तो उसका विरह सहन करना कठिन है । शुद्ध चेतन को मिले बिना मेरा चित्त भ्रमित हो रहा है। मुझे तनिक भी चैन नहीं पड़ता। मन-मिलापी के बिना क्रीड़ा करके मन बहलाने की, मनोरंजन करने की भी इच्छा नहीं होती। मन-मिलापी के बिना आनन्द की खुमारी उत्पन्न नहीं होती। मन मिले बिना प्रीति करना तो बालू रेत के ग्रास के समान है। अतः मेरे मन का मिलापी शुद्ध चेतन मिले बिना मुझे कदापि प्रानन्द की प्राप्ति नहीं होगी। मैं अपने प्राणनाथ शुद्ध चेतन के बिना कदापि नहीं रह सकूगी। मेरे मन का मिलापी मेरा स्वामी है मैं उसका ही स्मरण करती रहती हूँ॥१॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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