SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एव उनका काव्य - ३८० पारिठावरिया नामे वली जे का रे, ते तो परिहरवो पर भाव रे, सुधा० । नादर करवो निज स्वभाव नो रे, ए तो अकल स्वभाव कहेवाय रे, सुधा० ॥ २ ॥ पर पुद्गल मुनि परठवे रे, विचार करी घट माय रे, सुधा० । लोक संज्ञा ने मुनि परिहरे रे, गति चार पछे वोसिराय रे, सुधा० ॥ ३ ॥ अनादि नो संग वलि जे हतो रे, तेनो हवे करे मुनि त्याग रे, सुधा० । विकल्प ने संकल्प ने टालवा रे, वलि जे थया उजमाल, रे, सुधा० ॥ ४ ॥ मनाचीर्ण मुनि परठवे रे, ते जारणी ने अनाचार रे, सुधा० । प्राचार ने वलि जे मुनि श्रादरे रे, कर्त्ता कार्य स्वरूपी थाय रे, सुधा० ॥ ५ ॥ खट् द्रव्यनुं जाणपणु कह्य ु ं रे, ते स्वभाव नु कर्त्ता वलि जे थयो रे, जे जाणे श्राप स्वभाव रे, सुधा० । ते तो अनवगाही कहेवाय रे, सुधा० || ६ || सुमति सु हवे मुनि म्हालता रे, चालता समिति स्वभाव रे, सुधा० । कुमति थी दृष्टि नहीं जोड़त रे, THARIRA # वली तोड़ता जे विभाव रे, सुधा० ॥ ७ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy