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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०६ स्वयं ही सिद्ध रूप बनती है। हृदय में से वहाँ जाने के लिए सुरता ही एक शुद्धोपयोगता रूप खिड़की है। योग-मार्ग की अपेक्षा हृदय में से ब्रह्मरंध्र में जाने के लिए सुषुम्ना नाड़ी बंकनाल रूप खिड़की है। हृदय से सुषुम्ना नाड़ी में ब्रह्मरंध्र तक आने पर आत्मा के प्रकाश में वृद्धि हो जाती है। सम्पूर्ण आशाओं को मार कर, मन में दृढ़ स्थिरता रूपी आसन जमा कर जो अजपा जाप करता है अर्थात् उच्चारण रहित-चिन्तन रहित जाप करता है, वह आनन्दस्वरूप ज्ञान-दर्शनमय निरंजन स्वामी अर्थात् परमात्म देव को प्राप्त कर लेता है ॥ ४ ॥ विवेचन—आशाओं का परित्याग किये बिना कोई भी मनुष्य आत्म-साधना में सफल नहीं हो सकता। इस साधना में आसन का भी बड़ा महत्त्व है। आसन से काया के योग पर अंकुश रहता है। यदि देह ही स्थिर न रह सके तो मन का स्थिर रहना असम्भव है। अतः यम-नियम के पश्चात् 'अष्टांग योग' में प्रासन-योग का ही स्थान है। आसन में देह का शिथिलीकरण ही मुख्य है। ज्यों ज्यों देह शिथिल होती जायेगी, त्यों-त्यों मन एकाग्र होता जायेगा और मन की एकाग्रता ही आत्मसिद्धि का द्वार है। __ आशा का परित्याग करके यदि आत्मा हृदय रूपी घर में स्थिर उपयोग-आसन लगाये तथा वैखरी वाणी के बिना, स्वभाव से जो 'हंस-हंस' शब्द ध्वनित होता है उसका जाप करे अथवा 'सोऽहं' शब्द का जाप करे अथवा जो कोई योगी आत्मा के शुद्धोपयोग रूप अजपा जाप को जपे तो श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि वह आनन्द समूह युक्त चैतन्य मूत्ति रूप निरंजन परमात्मदेव को प्राप्त करता है। ( ४० ) ( राग-काफी ) हठीली प्रांख्यां टेक न मिटे, फिरि-फिरि देखन चाहूँ ॥ छैल छबीली पिय सबी, निरखत तृपति न होइ । हठकरि टुक हटके कभी, देत निगोरी - रोई ।। हठीली० ॥ १ ॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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