SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री आनन्दघन पदावली-१०५ दानव भी है जो प्रतिपल छल करता है। हे अवधूत ! तू यह बात समझता क्यों नहीं ? यह देह जड़ पुद्गलों से बनी है और तू ज्ञानघन चेतन है। देह तो इन जड़ पदार्थों में सुख मानती है। तू इनके संयोग से अनादि काल से ठगा जाता रहा है और अपना चैतन्य स्वरूप भूल बैठा है। अब तू अपनी यह भूल सुधार ।। २ ।। विवेचन-देह रूपी मठ में श्वासोच्छ्वास रूपी धूर्त खवीस है जो क्षण-क्षण में आत्मा के साथ छल करता है। ऐसे समय में हमें नींद क्यों करनी चाहिए। देह रूपी मठ की यह दशा है, फिर भी मूर्ख शिष्य समझ नहीं पा रहा है और देह-मठ के प्रति ममता रखकर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव में जाग्रत नहीं हो रहा । हे आत्मन् ! तू जाग जा, सचेत हो जा और पंच भूतों से सावधान रह। तू पंच परमेष्ठी का स्मरण कर ताकि पंच भूतों तथा खवीस का तनिक भी जोर न चले। अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधु-इन पाँच परमेश्वरों का तेरे सिर पर निवास है तथा तेरे घट में सम्यक्त्व रूपी सूक्ष्म खिड़की है जिसमें होकर तू क्षायिक भाव रूपी ध्रुव तारे का दर्शन कर सकता है, परन्तु उक्त ज्योति दीर्घ अभ्यास के द्वारा किसी विरले को ही प्रकट होती है। जब तक हृदय में अनेक कामनाएँ हैं, विभिन्न सुखों की तथा भोगों की आशाएँ लगी हुई हैं, तब तक आत्म-चिन्तन नहीं होता। जब हृदय समस्त वासनाओं का परित्याग करके केवल आत्म-लक्ष्यी हो जाता है तब उसे आत्म-दर्शन होता है ।। ३ ।। विवेचन तेरे सिर पर पंच परमेष्ठियों का निवास है। सिर के मध्य में ब्रह्मरंध्र है, वहाँ ध्यान के द्वारा प्रात्मा की स्थिरता होती है। ब्रह्मरंध्र में आत्मा के असंख्यात प्रदेश व्याप्त हैं। निश्चय नय से आत्मा स्वयं ही पंच परमेष्ठी रूप है। आत्मा देह की व्यापकता के कारण मुख्यतः सिर पर बसती है जो पंचपरमेष्ठी रूप है। अतः हम निश्चयनय से कह सकते हैं कि सिर पर पंच परमेश्वर का वास है। सिर पर आत्मा में साधु पद का ध्यान करने से साधु के गुण प्रकट होने से वह साधु कहलाता है, ब्रह्मरंध्र में उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप सोच कर उपाध्याय रूप बनता है, आत्मा ही प्राचार्य रूप अपना ध्यान करके आचार्य के रूप में प्रकट होती है, सिर पर आत्मा में अरिहन्त का ध्यान करने से घाती कर्म का क्षय करके आत्मा ही अरिहन्त बनती है और आत्मा ही स्वयं को सिद्ध रूप ध्यान करके समस्त कर्मों का क्षय करके
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy