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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-६६ है तथा चारित्रमोह आचार को बिगाड़ता है। दृष्टि बिगड़ने पर सृष्टि-आचरण अवश्य बिगड़ता है और दृष्टि सुधरने पर सृष्टि भी सुधर जाती है। अतः मोहदृष्टि संसार का हेतु है तथा ज्ञानदृष्टि मुक्ति का हेतु है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान ही मुक्ति का प्रधान हेतु है। ___ अतः सुमति कहती है कि हे मित्र अनुभव ! आप नाथ को सचेत क्यों नहीं करते ? उन्हें ममता की संगति अत्यन्त ही सुखद लगती है, परन्तु उसकी संगति बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों से दूध निकालने के समान है। आपके स्वामी ममतारूपी कुलटा की संगति से कदापि सुख प्राप्त नहीं करेंगे ॥१॥ आपके परम मित्र चेतन के लिए बार-बार मेरे कहने के कारण आप रोष मत करना, क्योंकि आपने ही ऐसी शिक्षा दी थी कि चेतन के ममता की संगति में रहने से कोई सार नहीं निकलेगा। मैं तो चेतनस्वामी को अनेक बार कह चुकी हूँ पर साँप को अंगुली दिखाने के समान उन्हें यह अत्यन्त अप्रिय लंगता है ।। २ ॥ विवेचन --जब कोई मनुष्य किसी को शिक्षा देता है तब वह अंगुली ऊँची करके उसे शिक्षा देता है, परन्तु बार-बार शिक्षा देने से अंगुली साँप के समान प्रतीत होती है-इसे अंगुली-सर्प-दर्शन-न्याय कहा जाता है। दक्षिण में साँप अत्यन्त विषैले होते हैं। जो मनुष्य साँप की ओर अंगुली करता है, उसे साँप काटता है। बार-बार स्वामी को शिक्षा देने से वे मुझ पर क्रोध करते हैं। ऐसा सुमति अनुभव को कह रही है। फिर भी हे अनुभव ! आप में अपूर्व शक्ति है, अतः आप चेतन को मनाकर ठिकाने लायें। अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आनन्द के स्वरूप चेतन को वास्तविक परिणति तो आनन्ददायिनी सुमति ही है, फिर आनन्दघन (आनन्दस्वरूप चेतन) ममता के कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते ॥ ३ ॥ जिस प्रति में 'प्रानन्दघन को प्रानन्दा, सिद्ध स्वरूप कहावे' पाठ है उसका अर्थ होगा-आनन्दघन चेतन का आनन्द तो सुमति ही है, जो चेतन को सिद्धत्व प्राप्त कराती है, अतः वह सिद्धस्वरूप कही जाती है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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