SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आयारदसा ६३ सूत्र २७ (११) अहावरा एकादसमा उवासग-पडिमा-- सव्व-धम्म-रुई यावि भवइ । जाव-उद्दिट्ठ-भत्तं से परिण्णाए भवइ । से णं खुरमुंडए, वा लुचसिरए वा, गहियायार-भंडग-नेवत्थे । जारिसे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे पण्णत्ते, तं सम्मं कारणं फासेमाणे, पालेमाणे, पुरओ जुगमायाए पेहमाणे, दळूण तसे पाणे उद्धटु पाए रीएज्जा, साहटु पाए रीएज्जा, तिरिच्छ वा पायं कटु रोएज्जा सति परक्कमे संजयामेव परिक्कमेज्जा, नो उज्जुयं गच्छेज्जा। केवलं से नायए पेज्जबंधणे अवोच्छिन्ने भवइ । एवं से कप्पति नाय-विहिं एत्तए। अब ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का निरूपण करते हैं वह सर्वधर्मरुचिवाला होता है, यावत् (पूर्वोक्त सर्वव्रतों का परिपालक होता है ) उद्दिष्टभक्त का परित्यागी होता है । वह क्षुरा से सिर का मुंडन कराता है, अथवा केशों का लुंचन करता है, वह साधु का आचार और भाण्ड (पात्र) उपकरण ग्रहण कर जैसा श्रमण निर्ग्रन्थों का वेष होता है वैसा वेष धारण कर उनके लिए प्ररूपित अनगार धर्म का सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श करता और पालन करता हुआ विचरता है, चलते समय युग-प्रमाण (चार हाथ) भूमि को देखता हुआ चलता है, त्रस प्राणियों को देखकर उनकी रक्षा के लिए अपने पैर उठा लेता है, उनको संकुचित कर चलता है, अथवा तिरछे पैर रखकर चलता है । (यदि मार्ग में त्रस जीव अधिक हों और) दूसरा मार्ग विद्यमान हो तो (जीव-व्याप्त मार्ग को छोड़कर) उस मार्ग पर चलता है, वह पूरी यतना के साथ चलता है, किन्तु बिना देखे-भाले ऋजु (सीधा) नहीं चलता है। केवल ज्ञाति-वर्ग में उसके प्रेम-बन्धन का विच्छेद नहीं होता है, अतः उसे ज्ञाति के लोगों में भिक्षावृत्ति के लिए जाना कल्पता है, अर्थात् सगे-सम्बन्धियों में गोचरी कर सकता है। सूत्र २८ तत्थ से पुवागमणेणं पुव्वाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंगसूवे, कप्पति से चाउलोदणे पडिग्गहित्तए, नो से कप्पति भिलिंगसूवे पडिग्गहित्तए ।
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy