SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टीका-सत्यदर्शन और ज्ञानपूर्वक चारित्र का अनुष्ठान तथा द्वादश प्रकार का तप एवं विनय और पांच प्रकार की समिति, तीन गुप्ति आदि शुद्ध क्रियानुष्ठान में जो अभिरुचि-पूर्ण श्रद्धा है वह क्रियाभिरुचि-सम्यक्त्वं है। यद्यपि चारित्र में सर्व क्रियानुष्ठान गर्भित हैं, तथापि कर्म के क्षय करने में तप आदि की प्रधानता ध्वनित करना सूत्रकार का मुख्य उद्देश्य है, इसलिए इनको पृथक् ग्रहण किया गया है। जिस समय चारित्रावरणीय कर्म का क्षय वा क्षयोपशम भाव होता है, उस समय इस जीव में समिति और गुप्ति आदि के अनुष्ठान की रुचि उत्पन्न हो तो वही क्रियारुचि-सम्यक्त्व है। अब संक्षेप-रुचि के विषय में कहते हैं - अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो । अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥ २६ ॥ अनभिगृहीतकुदृष्टिः, संक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः । अविशारदः प्रवचने, अनभिगृहीतश्च शेषेषु ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-अणभिग्गहियकदिट्ठी-कुदृष्टि जिसने नहीं ग्रहण की, संखेवरुइ त्ति-संक्षेपरुचि इस प्रकार, होइ-होती है, नायव्वो-जानना चाहिए, अविसारओ-विशारद नहीं है, पवयणे-प्रवचन में, य-तथा, अणभिग्गहिओ-अनभिगृहीत है, सेसेसु-शेष-कपिलादि मतों में। मूलार्थ-जो जीव असत् मत या वाद में फंसा हुआ नहीं है और वीतराग के प्रवचन में विशारद भी नहीं है, किन्तु उसकी श्रद्धा शुद्ध है, उसे संक्षेप-रुचि कहते हैं। .. टीका-प्रस्तुत गाथा में संक्षेपरुचि का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जिस जीव ने कुदृष्टि अर्थात् असन्मार्ग का ग्रहण नहीं किया और जिन-प्रवचन में भी अति निपुण नहीं है, तथा अन्य मतों का भी जिसे विशेष ज्ञान नहीं है, किन्तु वीतराग के मार्ग पर अटल विश्वास रखता है, ऐसा जीव संक्षेपरुचि-सम्यक्त्व वाला कहा जाता है। वर्तमान काल में इस प्रकार के जीव अधिक प्रतीत होते हैं, परन्तु इनके लिए धर्मप्रभावना की अधिक आवश्यकता है, अन्यथा इनके धर्मपथ से विचलित हो जाने की भी अधिक संभावना हो सकती है। अब धर्मरुचि के सम्बन्ध में कहते हैं - जो अत्थिकायधम्म, सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । सदहइ जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥ २७ ॥ योऽस्तिकायधर्म, श्रुतधर्मं खलु चारित्रधर्मं च । श्रद्धत्ते जिनाभिहितं, स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो, अत्थिकायधम्म-अस्तिकाय-धर्म, च-और, सुयधम्म-श्रुत-धर्म, · उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८९] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy