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________________ द्रव्याणां सर्वे भावाः, सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्धाः । सर्वैयविधिभिः, विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ २४ ॥ पदार्थान्वयः-दव्वाण-द्रव्यों के, सव्वभावा-सर्व भाव, सव्व-सर्व, पमाणेहि-प्रमाणों से, जस्स-जिसको, उवलद्धा-उपलब्ध हैं, सव्वाहि-सर्व, नयविहीहिं-नयविधियों से, वित्थाररुइविस्तार-रुचि, त्ति-इस प्रकार, नायव्वो-जानना चाहिए। मूलार्थ-द्रव्यों के सब भावों को जिसने सर्व प्रमाणों और सर्व नयों से जान लिया है उसको विस्तार-रुचि कहते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में विस्तार-रुचि की व्याख्या इस प्रकार से की गई है। यथा-धर्मादि-द्रव्यों के भावों को जो प्रत्यक्षादिप्रमाणों और नैगमादि-नयों के द्वारा भली प्रकार से जानता है, अर्थात् उनके द्वारा जिसको सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है उसे विस्तार-रुचि कहते हैं। पदार्थ के स्वरूप को जानने के मुख्य दो साधन हैं, जो कि प्रमाण और नय के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'प्रमाणनयैरधिगमः" इसलिए इस लोक में जितने भी पदार्थ हैं उनके ज्ञानार्थ प्रमाण और नय की विशेष आवश्यकता है। प्रमाण के मुख्य दो परोक्ष और प्रत्यक्ष भेद, और विस्तार से प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-चार भेद हैं। प्रमाण के एक अंश को नय कहते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो विचारों का वर्गीकरण या भिन्न-भिन्न अपेक्षाएं नय कही जाती हैं। नय के भी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक-ये दो भेद हैं और इन्हीं के विस्ताररूप १ नैगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र, ५ शब्द, ६ समभिरूढ़ और ७ एवंभूत, ये सात भेद किए गए हैं। अब क्रियारुचि का लक्षण बताते हैं - दंसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु ।। जो किरियाभावरूई, सो खलु किरियारुई नाम ॥ २५ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रे, तपोविनये सत्यसमितिगुप्तिषुः । यः क्रियाभावरुचिः, सः खलु क्रियारुचिर्नाम ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः-दसण-दर्शन, नाण-ज्ञान, चरित्ते-चारित्र, तव-तप, विणए-विनय, सच्च-सत्य, समिइ-समिति, गुत्तीसु-गुप्तियों में, जो-जो, किरिया-क्रिया, भाव-भाव, रुई-रुचि है, सो-वह, खलु-निश्चय ही, किरिया-क्रिया, रुई-रुचि, नाम-नाम से प्रसिद्ध है। मूलार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्तियों में जो क्रिया-भाव-रुचि है, अर्थात् उक्त क्रियाओं का सम्यक् अनुष्ठान करते हुए जिसने सम्यक्त्व को प्राप्त किया है वह क्रियारुचि-सम्यक्त्व वाला साधक है। १. तत्त्वा . सू. अ. १ सू. ६। २. इनका अधिक वर्णन देखना हो तो न्यायावतारिका आदि ग्रन्थों में देखें। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८८] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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