SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विजया वैजयन्ताश्च, जयन्ता अपराजिताः ॥ २१४ ॥ सर्वार्थसिद्धिकाश्चैव, पञ्चधाऽनुत्तराः सुराः । इति वैमानिका एते, अनेकधा एवमादयः ॥ २१५ ॥ पदार्थान्वयः-विजया-विजय, य-और, वेजयंता-वैजयन्त, जयंता-जयन्त, अपराजियाअपराजित, च-और, सव्वत्थसिद्धिगा-सर्वार्थसिद्धि, पंचहा-पांच प्रकार के, अणुत्तरा-अनुत्तर, सुरा-देव हैं, इइ-इस प्रकार, एए-ये, वेमाणिया-वैमानिक देव, अणेगहा-अनेक प्रकार के, एवमायओ-इत्यादि। मूलार्थ-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि, ये पांच अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार इन वैमानिक देवों के भेद वर्णन किए गए हैं। ___टीका-अनुत्तर विमानों के पांच भेद हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धिक। ये वैमानिक देव प्रायः एकान्त सातावेदी होते हैं अर्थात् केवल सुखों का ही उपभोग करते हैं। सर्वार्थसिद्धि विमान में केवल एक भवावतारी देवों का निवास है। द्वादश कल्प देवलोक, नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान, इन २६ देवलोकों में ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान हैं। इनमें असंख्य देवों का निवास है। कल्प देवलोकों में सम्यक्-दृष्टि, मिथ्या-दृष्टि और मिश्र-दृष्टि, ये तीनों प्रकार के देव निवास करते हैं। नवग्रैवेयक में सम्यग्दृष्टि और मिथ्या-दृष्टि इन दो दृष्टि वाले देवों का निवास है, और पांच अनुत्तर विमानों में सम्यग्दृष्टि देव ही रहते हैं। इस विषय का विस्तृत वर्णन भगवती और प्रज्ञापना आदि सूत्रों में प्राप्त होता है। अब इनके क्षेत्र और कालविभाग के विषय में कहते हैं. लोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वेवि वियाहिया । . इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वुच्छं चउव्विहं ॥ २१६ ॥ लोकस्यैकदेशे, ते सर्वेऽपि व्याख्याताः । इतः कालविभागन्तु, तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ॥ २१६ ॥ पदार्थान्वयः-लोगस्स-लोक के, एगदेसम्मि-एक देश में, ते–वे, सव्वेवि-सभी, वियाहिया-कथन किए गए हैं, तु-पुनः; इत्तो-इसके आगे, तेसिं-इनके, चउव्विहं-चतुर्विध, कालविभागं-कालविभाग को, वुच्छं-कहूंगा। मूलार्थ-इन देवलोकों की स्थिति लोक के एक भाग में है; अर्थात् ये लोक के एक भाग विशेष में ही अवस्थित हैं। अब इसके अनन्तर इन देवों के चतुर्विध कालविभाग को मैं कहता हूं। टीका-आचार्य कहते हैं कि इन सारे देवलोकों की स्थिति लोक के एक भाग-विशेष में है, सर्वत्र नहीं। इसके आगे अब इनके चार प्रकार के कालविभाग का वर्णन किया जाता है। १. एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सुहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंतगसुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु गेवेज्जमणुत्तरेसु य चउरासीइं विमाणावाससयसहस्सा, सत्ताणउइं च सहस्सा, तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खाया [समवायांग सू. भवनादिवर्णन सू. १५०] उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४६१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy