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________________ . पञ्चेन्द्रियास्तिर्यञ्चः, द्विविधास्ते व्याख्याताः । सम्मूछिमतिर्यञ्चः, गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तथा ॥ १७० ॥ पदार्थान्वयः-ते-वे, पंचिंदियतिरिक्खाओ-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च, दुविहा-दो प्रकार के, वियाहिया-कहे गए हैं, संमुच्छिमतिरिक्खाओ-संमूछिम-तिर्यञ्च, तहा-तथा, गब्भवक्कंतियागर्भव्युत्क्रान्त अर्थात् गर्भ से उत्पन्न होने वाले। मूलार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च दो प्रकार के कथन किए गए हैं-संमूछिम तिर्यञ्च और गर्भज तिर्यञ्च। ___टीका-नारकी जीवों के अनन्तर प्रस्तुत गाथा में तिर्यञ्चों के वर्णन का उपक्रम किया गया है। तिर्यंच जीव संमूछिम और गर्भज भेद से दो प्रकार के हैं। संमूच्छिम-किसी स्थान-विशेष में पुद्गलों के एकत्रित हो जाने से उत्पन्न होने वाले अर्थात् माता-पिता के संयोग के बिना ही जिनकी उत्पत्ति हो जाती है, तथा मन:पर्याप्ति के अभाव से जो सदा मूच्छित की तरह ही अत्यन्त मूढ़ अवस्था में रहते हैं उनको संमूछिम जीव कहा जाता है। गर्भज-गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों के दो भेद शास्त्र में वर्णन किए गए हैं। अब इनके अवान्तर भेदों का वर्णन करते हैं, यथा दुविहा ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा । नहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १७१ ॥ द्विविधास्ते भवेयुस्त्रिविधाः, जलचराः स्थलचरास्तथा । नभश्चराश्च बोद्धव्याः, तेषां भेदान् श्रृणुत मे ॥ १७१ ॥ पदार्थान्वयः-दुविहा-दो प्रकार के, ते-वे तिर्यंच, तिविहा-तीन प्रकार के, भवे-होते हैं, जलयरा-जलचर, तहा-तथा, थलयरा-स्थलचर, नहयरा-नभचर, बोधव्वा-जानना, तेसिं-उनके, भेए-भेदों को, मे-मुझसे, सुणेह-श्रवण करो। मूलार्थ-आचार्य कहते हैं कि दो प्रकार के भी वे तिर्यंच तीन प्रकार के होते हैं-जलचर, स्थलचर और नभचर। अब इनके भेदों को तुम मुझसे श्रवण करो। टीका-समूच्छिम और गर्भज तिर्यंचों के भी प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं। १. जलचर-जल में विचरने वाले। २. स्थलचर-स्थल अर्थात् भूमि पर विचरने वाले। ३. नभचर-नभ अर्थात् आकाश में उड़ने वाले। इनमें से प्रत्येक के गर्भज और संमूच्छिम ये दो भेद करने पर ये ६ प्रकार के हो जाते हैं। संमूछिम-जलचर, स्थलचर और नभचर। गर्भज-जलचर, स्थलचर और नभचर। अब शास्त्रकार इनके भेदों के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४३९] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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