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________________ टीका-नारकी जीवों की काय-स्थिति भव-स्थिति के समान ही जघन्य अथवा उत्कृष्ट रूप से वर्णन की गई है। कारण यह है कि नारकी जीव मर कर फिर नरक में ही उत्पन्न नहीं होता, अपितु नरक से निकल कर गर्भज-पर्याप्त मनुष्य और तिर्यग् योनि में ही संख्येय वर्षों तक निवास करता है, अतः नारकी जीवों की भवस्थिति और कायस्थिति दोनों एक ही हैं। अब इनके अन्तर-काल के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमहत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए, नेरइयाणं तु अंतरं ॥ १६८ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, नैरयिकाणान्तु अन्तरम् ॥ १६८ ॥ ... पदार्थान्वयः-नेरइयाणं-नारकी जीवों का, सए काए-स्वकाया को, विजढम्मि-छोड़ने पर, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अंतरं-अन्तर, अणंतकालं-अनन्त काल का, और, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त का माना गया है। मूलार्थ-नारकी जीवों का स्वकाय को छोड़कर फिर उसमें वापिस आने तक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्त-काल का होता है। टीका-नारकी जीव नरक को त्याग कर गर्भज-पर्याप्त में जाने के बाद यदि फिर नरक में आए तो उसको कम से कम और अधिक से अधिक कितना समय अपेक्षित है? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं कि कम से कम अन्तर्मुहूर्त के बाद और अधिक से अधिक अनन्तकाल के पश्चात् वह फिर अपनी उसी योनि में उत्पन्न हो सकता है। अब फिर कहते हैं कि एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १६९ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो . रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १६९ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन नारकी जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओ वि-संस्थानादेश से भी, सहस्ससो-हजारों, विहाणाई-भेद हो जाते हैं। मूलार्थ-इन नारकी जीवों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान की अपेक्षा से अनेकानेक भेद हो जाते हैं। टीका-वर्ण, गन्ध और रसादि के तारतम्य से नारकी जीवों के हजारों भेद हो जाते हैं। इस प्रकार नारकी जीवों के अनन्तर अब तिर्यञ्चों का वर्णन करते हैं पंचिंदियतिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया । । संमुच्छिमतिरिक्खाओ, गब्भवक्कतिया तहा ॥ १७०. ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४३८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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