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________________ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १५४ ॥ पदार्थान्वयः–एएसिं-इन जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च- और, गंधओ - गन्ध से, रसफासओ - रस और स्पर्श से, वा- तथा, संठाणादेसओ-संस्थानादेश से, अवि- भी, सहस्ससो- हजारों, विहाणाइं-भेद होते हैं। मूलार्थ - वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान की अपेक्षा से इन चतुरिंद्रिय जीवों के हजारों भेद हैं। टीका-वर्णादि के तारतम्य भाव से चतुरिन्द्रिय जीवों के असंख्य भेद हो जाते हैं, शेष व्याख्या पूर्ववत् जानना चाहिए। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों का स्वरूप और उनके अनेक प्रकार के भेद-उपभेदों का वर्णन करने के अनन्तर अब पञ्चेन्द्रिय जीवों के विषय में कहते हैं, यथापंचिंदिया उ जे जीवा, चउव्विहा ते वियाहिया । नेरइया तिरिक्खा य, मणुया देवा य आहिया ॥ १५५ ॥ पञ्चेन्द्रियास्तु ये जीवाः, चतुर्विधास्ते व्याख्याताः । नैरयिकास्तिर्यञ्चश्च, मनुजा देवाश्चाख्याताः ॥ १५५ ॥ पदार्थान्वयः - पंचिंदिया - पञ्चेन्द्रिय, जे जो, जीवा - जीव हैं, ते-वे, चउव्विहा - चार प्रकार के, वियाहिया - कथन किए गए हैं, नेरइया - नारकी, य-और, तिरिक्खा - तिर्यंच, मणुया - मनुष्य, य-और, देवा-देवता, आहिया - कथन किए गए हैं - तीर्थंकरों ने, उ-पादपूर्ति में मूलार्थ - पञ्चेन्द्रिय जीव चार प्रकार के कहे गए हैं- नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवता । टीका-पञ्चेन्द्रिय जीवों के तीर्थंकर भगवान् ने चार भेद बताए हैं, जैसे कि ऊपर दर्शाए गए हैं। इन भेदों के कारण जीवात्मा के उच्चावच कर्म हैं। इन्हीं के प्रभाव से वह ऊंची-नींची योनियों को प्राप्त होता है। अब शास्त्रकार क्रम प्राप्त प्रथम नारकी जीवों का वर्णन करते हैं। यथा नेरइया सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसु भवे ।" रयणाभसक्कराभा, बालुयाभा य आहिया ॥ १५६ ॥ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इइ नेरइया एए, सत्तहा परिकित्तिया १५७ ॥ नैरयिकाः सप्तविधाः, पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः । रत्नाभा शर्कराभा, बालुकाभा चाख्याताः ॥ १५६ ॥ पङ्काभा धूमाभा, तमः तमस्तमः तथा । इति नैरयिका एते, सप्तधा परिकीर्तिताः ॥ १५७ ॥ १. दीपिकावृत्तिकार ने इस गाथा के उत्तरार्द्ध में इस प्रकार अधिक पाठ दिया है- पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४३२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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