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________________ आता है। एक ही वस्तु का एक देश में अन्य नाम होता है और दूसरे देश में वह किसी दूसरे ही नाम से प्रसिद्ध होती है। अतः ऊपर चतुरिन्द्रिय जीवों के जो नाम दिए गए हैं उनमें कुछ नामों का तो ज्ञान होता है और कुछ का नहीं हो पाता। शास्त्रकारों ने तो अपने विशिष्ट ज्ञान से उनका उल्लेख कर दिया है, परन्तु हम लोगों को उनको समझने के लिए गीतार्थ गुरुओं की शरण में जाकर जिज्ञासा करनी चाहिए। जैसे शास्त्रों में लिखे रहने पर भी वनौषधियों का बिना किसी अनुभवी वैद्य की सहायता से ज्ञान नहीं हो पाता, उसी प्रकार यहां पर भी समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि चतुरिन्द्रिय जीवों के अनेक भेद हैं, उनमें कुछ नाम तो ऊपर बतला दिए गए हैं। इनके अतिरिक्त इनके विषय में और सब कुछ पूर्व की भांति ही समझ लेना चाहिए। अब इनका कालसापेक्ष्य वर्णन करते हैं, यथा संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिडं पड़च्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १५० ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिका, अपर्यवसिता अपि च । । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥१५० ॥ पदार्थान्वयः-संतई-प्रवाह की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित, ठिई-स्थिति की, पडुच्च-प्रतीति से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं। मूलार्थ-चतुरिंद्रिय जीव सन्तान अर्थात् प्रवाह की अपेक्षा से तो अनादि-अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ___टीका-प्रवाह की अपेक्षा से तो ये सभी जीव अनादि अर्थात् आदि से रहित और अनन्त अर्थात् अन्त से रहित हैं, परन्तु स्थिति अर्थात् आयुस्थिति और कायस्थिति आदि की अपेक्षा से ये उत्पत्ति और विनाश दोनों से युक्त हैं। अब इसी बात को प्रमाणित करने के लिए इनकी भवस्थिति का वर्णन करते हैं, यथा छच्चेव य मासाऊ, उक्कोसेण वियाहिया । चउरिंदियआउठिई, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ १५१ ॥ षट् चैव च मासायुः, उत्कर्षेण व्याख्याताः । चतुरिन्द्रियायुः स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ १५१ ॥ पदार्थान्वयः-चउरिंदिय-चार इन्द्रियों वाले जीवों की, आउठिई-आयु की स्थिति, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अन्तमुहूर्त, य-और, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, छच्चेव-षट्-छः-ही, मासाऊ-मास की आयु, वियाहिया-प्रतिपादन की गई है। मूलार्थ-चतुरिन्द्रिय जीवों की जघन्य आयुस्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट छः मास की वर्णन की गई है। टीका-चार इन्द्रियों वाले जीवों का आयुमान कम से कम अन्तर्मुहूर्त का और अधिक से अधिक उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४३०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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