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________________ मूलार्थ-जो बादर पर्याप्त हैं वे पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा-१. मेघ का जल, २. ओस, ३. हरतनु, ४. धूयर अर्थात् धुंध और ५. बर्फ।। टीका-प्रस्तुत गाथा में पर्याप्त-बादर के पांच भेदों का उल्लेख किया गया है, यथा-१. मेघ का पानी तथा समुद्रादि का जल, २. अवश्याय अर्थात् ओस का पानी, जो शरद्-ऋतु में प्रात:काल में सूक्ष्म सी वर्षा हुआ करती है, ३. हरतनु' अर्थात् प्रात:काल स्नेहयुक्त पृथिवी से निकल कर तृण के अग्रभाग में मुक्ता के समान दिखाई देने वाले जलबिन्दु, ४. महिका अर्थात् गर्मी के मासों में जो सूक्ष्म वर्षा होती है उसे महिका कहते हैं, लोक में उसे धूमर या धुंध के नाम से पुकारते हैं, ५. बर्फ तो प्रसिद्ध ही है। अब सूक्ष्म अप्काय के विषय में कहते हैं, यथा एगविहमनाणत्ता, सुहमा तत्थ वियाहिया । सुहमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे य बायरा ॥ ८६ ॥ एकविधा अनानात्वाः, सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः । सूक्ष्माः सर्वलोके, लोकदेशे च बादराः ॥ ८६ ॥ पदार्थान्वयः-एगविहं-एक प्रकार का, अनाणत्ता-नाना भेदों से रहित, सुहुमा-सूक्ष्म, तत्थ-उक्त दोनों भेदों में, वियाहिया-कहे गए हैं, सुहुमा-सूक्ष्म, सव्वलोगम्मि-सर्व लोक में हैं, य-और, बायरा-बादर, लोगदेसे-लोक के एक देश में हैं। . मूलार्थ-सूक्ष्म अप्काय के जीव नाना प्रकार के भेदों से रहित केवल एक ही प्रकार के हैं, तथा सूक्ष्म अप्काय के जीव सर्व लोक में व्याप्त हैं और बादर अप्काय के जीव लोक के एक देश में स्थित हैं। टीका-जिस प्रकार बादर अप्काय के पांच भेद ऊपर वर्णन किए गए हैं, उसी प्रकार से सूक्ष्म अप्काय का कोई अवान्तर भेद नहीं है, अर्थात् वह सर्व प्रकार के भेदों से रहित केवल एक ही है। सूक्ष्म अप्काय सर्व-लोक-व्यापी है और बादर अप्काय की स्थिति लोक के एक देश में है। अब इसके अनादित्व और सादित्व के विषय में कहते हैं संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य । ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ ८७ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ ८७ ॥ पदार्थान्वयः-संतई-सन्तति की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसिया-अपर्यवसित है, अवि-तथा, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-अपेक्षा से, साईया-सादि, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी है। मूलार्थ-अप्काय सन्तान की अपेक्षा से अनादि-अपर्यवसित है और स्थिति की अपेक्षा से १. हरतनु-प्रातः सस्नेहं पृथिव्युद्भवस्तृणाग्रजलबिन्दुः इति बृहद् वृत्तिकारः। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४०१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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