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________________ पदार्थान्वयः - वण्णओ-वर्ण से, परिणया - परिणत, जे - जो- पुद्गल हैं, ते-वे, पंचहा - पांच प्रकार के, पकित्तिया - कहे गए हैं, यथा- किण्हा-कृष्ण, नीला नील, य-और, लोहिया - लोहित अर्थात् लाल, हालिद्दा’हारिद्र अर्थात् पीला, तहा - तथा, सुक्किला - शुक्ल अर्थात् सफेद, उ-पादपूर्ति में है। मूलार्थ - पुद्गलों की वर्ण से जो परिणति होती है, उसके पांच भेद कहे गए हैं, यथा - काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत । टीका - इस गाथा में वर्ण अर्थात् रंग के अवान्तर भेदों का वर्णन किया गया है। वर्ण के पांच भेद कथन किए गए हैं-१. कृष्ण अर्थात् कज्जल के समान काला, २. नीला अर्थात् नील के सदृश, ३. लोहित अर्थात् हिंगुल के समान लाल, ४. हारिद्र अर्थात् हल्दी के समान पीला और ५. शुक्ल - शंख के सदृश श्वेत। तात्पर्य यह है कि इन पांचों वर्णों के रूप में पुद्गल द्रव्य परिणत हो रहा है। अब गन्ध के विषय में कहते हैं गंधओ परिणया जे उ, दुविहा ते वियाहिया । सुब्भिगंधपरिणामा, दुब्भिगंधा तहेव य ॥ १७ ॥ गन्धतः परिणता ये तु द्विविधास्ते व्याख्याताः । सुरभिगन्धपरिणामाः, दुर्गन्धास्तथैव च ॥ १७ ॥ पदार्थान्वयः - गंधओ - गन्ध में, परिणया - परिणत, जे - जो पुद्गल होते हैं, ते-वे, दुविहा- दो प्रकार के, वियाहिया - कथन किए गए हैं, सुब्भिगंध - सुगंधि में, परिणामा परिणत हुए, य-फिर, तहेव - उसी प्रकार, दुब्भिगन्धा - दुर्गन्ध में परिणत होने वाले । मूलार्थ- गन्ध में परिणत होने वाले पुद्गलों की दो प्रकार की परिणति होती है - सुगन्धरूप में और दुर्गन्धरूप में। टीका- गन्धरूप में परिणत होने वाले पुद्गलों के दो भेद प्रतिपादन किए गए हैं-सुरभिगन्ध अर्थात् सुन्दर गन्ध श्रीखण्ड - चन्दनादि जैसा, दुर्गन्धयुक्त लहशुन आदि के समान गन्ध वाला। तात्पर्य यह है कि गन्ध के सुगन्ध और दुर्गन्ध, इस प्रकार दो भेद हैं। जैसे पुद्गल में पांच वर्ण रहते हैं, उसी प्रकार दो प्रकार की गन्ध भी रहती है। अब रस के विषय में कहते हैं रसओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । तित्तकडुयकसाया, अंबिला महुरा तहा ॥ १८ ॥ रसतः परिणता ये तु पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः । तिक्तकटुक-कषायाः, अम्ला मधुरास्तथा ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः - रसओ - रस रूप में, जे- जो पुद्गल, परिणया-परिणत होते हैं, ते-वे, पंचहा - पांच प्रकार के, पकित्तिया-प्रतिपादन किए गए हैं, तित्त- तीखा, कडुय-कटुक, कसाया- कसैला, अंबिला-खट्टा, तहा-तथा, महुरा - मधुर, उ-पादपूर्ति में है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३६७ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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