SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-रूपी अजीव-द्रव्य का जघन्य अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल का तीर्थंकरों ने कथन किया है। टीका-इस गाथा में परमाणु आदि के विषय में काल-कृत् अन्तर का वर्णन किया गया है। शिष्य ने पूछा है कि परमाणु अथवा स्कन्ध किसी विवक्षित आकाश-प्रदेश में स्थित हुए किसी निमित्तवशात् यदि वहां से चल पड़े तो उसके बाद वह परमाणु या स्कन्ध फिर उस आकाश-प्रदेश में कब तक वापस आ सकता है? इस पर गुरु कहते हैं कि न्यून तो एक समय के पश्चात् और अधिक से अधिक अनन्त-काल के पश्चात् वे उस आकाश-प्रदेश पर वापस आ जाते हैं। यह अन्तर-कालमान जघन्य और उत्कृष्ट है, मध्यम अन्तर-काल तो आवलिका से लेकर संख्यात और असंख्यात-काल-पर्यन्त माना गया है। अब भाव से इनका निरूपण करते हैं, यथा वण्णओ गंधओ चेव, रसओ फासओ तहा । । संठाणओ य विन्नेओ, परिणामो तेसिं पंचहा ॥ १५ ॥ वर्णतो गन्धतश्चैव, रसतः स्पर्शतस्तथा । संस्थानतश्च विज्ञेयः, परिणामस्तेषां पञ्चधा ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः-वण्णओ-वर्ण से, गंधओ-गन्ध से, च-और, एव-निश्चय में, रसओ-रस से, तहा-तथा, फासओ-स्पर्श से, य-और, संठाणओ-संस्थान से, तेसिं-उनका, पंचहा-पांच प्रकार का, परिणामो-परिणाम अर्थात् स्वभाव, विन्नेओ-जानना चाहिए। मूलार्थ-स्कन्ध और परमाणु का वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान अर्थात् आकृति से पांच प्रकार का स्वरूप अथवा स्वभाव जानना चाहिए, तात्पर्य यह है कि वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके पांच भेद हैं। टीका-रूपी अजीव द्रव्यों की अनुभूति वर्ण, रस, गन्धादि के द्वारा ही होती है। ये रूपी द्रव्य के असाधारण धर्म हैं और इन्हीं से वह अपने स्वरूप में स्थित और निज स्वभाव से परिणत हो रहा है। ये गुण परमाणु में सदैव विद्यमान रहते हैं, तथा वह रूपी द्रव्य भी कभी इनसे पृथक् नहीं हो सकता। कारण यह है कि पदार्थ अपने स्वाभाविक गुण का कभी परित्याग नहीं करता। यदि कर दे, तो उसका पदार्थत्व ही नष्ट हो जाए। जैसे कि सुवर्ण का स्वाभाविक गुण पीतता है, यदि उसका यह गुण नष्ट हो जाए, अथवा स्वर्ण अपने पीत गुण का परित्याग कर दे, तो उसका स्वरूप ही नष्ट हो जाता है। इसलिए ये वर्ण-रस-गन्धादि पुद्गल के सदैव साथ में रहने वाले गुण हैं और इन्हीं के द्वारा पुद्गल-द्रव्य की स्वभाव-परिणति की उपलब्धि होती है। अब उक्त वर्णादि गुणों में से प्रत्येक गुण के अवान्तर भेदों का वर्णन करते हैं, यथा वण्णओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिया । किण्हा नीला य लोहिया, हालिद्दा सुक्किला तहा ॥ १६ ॥ वर्णतः परिणता ये तु, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः । . कृष्णा नीलाश्च लोहिताः, हारिद्राः शुक्लास्तथा ॥ १६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy