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________________ टीका-प्रस्तुत गाथा में क्षेत्र की दृष्टि से अजीव-तत्त्व के अरूपी द्रव्यों का निरूपण किया गया है। यथा-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का क्षेत्र लोकप्रमाण है, आकाशास्तिकाय की सत्ता सम्पूर्ण लोक और अलोक दोनों में है, तथा काल का क्षेत्र अढ़ाई-द्वीप-प्रमाण है। शास्त्रकारों ने मनुष्य-क्षेत्र को अढ़ाई-द्वीप में परिगणित किया है। इसी क्षेत्र में सूर्य और चन्द्रमा आदि के भ्रमण से, समय से लेकर पल्योपम एवं सागरोपम आदि के प्रमाण का निश्चय किया जाता है, अतएव समय-विभाग को समय-क्षेत्रिक माना गया है और जो अढ़ाई-द्वीप से बाह्य क्षेत्र हैं उनमें भी समय का निर्णय समय-क्षेत्र से ही किया जाता है, क्योंकि द्रव्य-काल समय-विभागादि से ही उत्पन्न होता है। . सारांश यह है कि काल-द्रव्य का क्षेत्र अढ़ाई-द्वीप पर्यन्त ही स्वीकार किया गया है। काल की सर्व गणना समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) से ही की जाती है। अब काल से अजीव-द्रव्य के अरूपी विभाग के विषय में कहते हैं धम्माधम्मागासा, तिन्नि वि एए अणाइया । अपज्जवसिया चेव, सव्वद्धं तु वियाहिया ॥८॥ धर्माऽधर्माऽऽकाशानि, त्रीण्यप्येतान्यनादीनि । अपर्यवसितानि चैव, सर्वाद्धं तु व्याख्यातानि ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः-धम्माधम्मागासा-धर्म, अधर्म और आकाश, एए-ये, तिन्नि वि-तीनों ही, अणाइया-अनादि, अपज्जवसिया-अपर्यवसित हैं, सव्वद्धं-सर्व काल में, वियाहिया-ऐसे तीर्थंकरों ने कहा है। मूलार्थ-तीर्थंकरों ने कहा है कि धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीनों ही द्रव्य सर्व काल में अनादि और अपर्यवसित-अपने स्वभाव को न छोड़ने वाले माने गए हैं। टीका-धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीनों ही अरूपी द्रव्य अनादि और अन्त-रहित हैं। तात्पर्य यह है कि न तो इनकी कोई आदि है और न ही अन्त। परन्तु यह कथन काल की अपेक्षा से है, पर्याय की वा क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं। इस गाथा में सर्वत्र लिंग का व्यत्यय किया हुआ है। अब काल के विषय में कहते हैं समए वि संतई पप्प, एवमेव वियाहिए । आएसं पप्प साइए, सपज्जवसिए वि य ॥९॥ समयोऽपि संततिं प्राप्य, एवमेव व्याख्यातः । ___आदेशं प्राप्य सादिकः, सपर्यवसितोऽपि च ॥९॥ पदार्थान्वयः-समए वि-समय भी, संतई-सन्तति की, पप्प-अपेक्षा से, एवमेव-उसी प्रकार अनादि अपर्यवसित, वियाहिए-कथन किया है और, आएसं पप्प-आदेश की अपेक्षा से, साइए-सादि, सपज्जवसिए-सपर्यवसित है, च-पुनरर्थक है और, अवि-समुच्चय में है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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