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________________ य-और, तप्पएसे-उसका प्रदेश, य-पुनः, आहिए-कहा गया है, आगासे-आकाशास्तिकाय, य-और, तस्स-उसका, देसे-देश, य-तथा, तप्पएसे-उसका प्रदेश, आहिए-कहा है, अद्धासमए-अद्धा-समय अर्थात् काल का समय, अरूवी-अरूपी द्रव्य, दसहा-दश प्रकार का, भवे-होता है। मूलार्थ-धर्मास्तिकाय के-१. स्कन्ध, २. देश और ३. प्रदेश तथा अधर्मास्तिकाय के-४. स्कन्ध, ५. देश और ६. प्रदेश एवं आकाशास्तिकाय के-७. स्कन्ध, ८. देश और ९. प्रदेश तथा १०. अद्धासमय-काल-पदार्थ, इस तरह अरूपी द्रव्य के दस भेद होते हैं। टीका-इस गाथा में अरूपी द्रव्य के दस भेदों का दिग्दर्शन कराया गया है। अजीव-तत्त्व में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल, ये चार अरूपी द्रव्य हैं। इनमें से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, इन तीनों से प्रत्येक के स्कन्ध, देश और प्रदेश, ऐसे तीन-तीन भेद होने से नौ भेद होते हैं और दसवां काल, इस प्रकार कुल दस भेद होते हैं। निर्विभाग होने से काल के स्कन्ध, देश और प्रदेश नहीं माने जाते। यद्यपि वर्तनालक्षण काल के भी भूत, भविष्यत् और वर्तमान ऐसे तीन भेद माने गए हैं, तथापि धर्माधर्मादि की भांति इन समयों का एकीभाव नहीं हो सकता, क्योंकि काल में प्रदेश-प्रचय-रूपता नहीं है, इसलिए काल तत्त्व एक ही है। अतः कालतत्त्व के मिलने से कुल दस ही भेद अरूपी दृव्य के माने गए हैं तथा इनके गति-स्थिति आदि लक्षणों का वर्णन प्रस्तुत सूत्र के २८वें अध्ययन में हो चुका है। १. स्कन्ध-किसी भी सम्पूर्ण द्रव्य के पूर्ण रूप का नाम स्कन्ध है। २. देश-स्कन्ध के किसी एक कल्पित विभाग को देश कहते हैं। ३. प्रदेश-स्कन्ध का एक अत्यन्त सूक्ष्म अविभाज्यांश (जिसका और कोई विभाग न हो सके) प्रदेश या परमाणु कहलाता है। तात्पर्य यह है कि वह अविभाज्य अंश अपने स्कन्ध के साथ मिला हुआ तो प्रदेश कहलाता है और स्कन्ध से पृथक् होने पर उसकी परमाणु संज्ञा होती है। अब उक्त द्रव्यों के विभाग का क्षेत्र से निरूपण करते हैं, तथा धम्माधम्मे य दो चेव, लोगमित्ता वियाहिया । लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए ॥ ७ ॥ धर्माऽधर्मों च द्वौ चैव, लोकमात्रौ व्याख्यातौ । लोकेऽलोके चाकाशः, समयः समयक्षेत्रिकः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-धम्माधम्मे य-धर्म और अधर्म, दो चेव-दोनों ही, लोगमित्ता-लोकमात्र-प्रमाण, वियाहिया-कथन किए गए हैं, लोगालोगे य-लोक और अलोक प्रमाण, आगासे-आकाश है-परन्तु समए-समय, समयखेत्तिए-समयक्षेत्रिक है। ___ मूलार्थ-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन दोनों को लोकप्रमाण कहा गया है, तथा आकाश लोक और अलोक उभय-प्रमाण है, परन्तु समय अर्थात् काल समय-क्षेत्रिक अर्थात् अढ़ाई-द्वीप-प्रमाण है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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